हर कोई अपने हिस्से का गांधी चाहता है. यहां तक कि जो लोग उन्हें विभाजन का जिम्मेदार मानते हैं और उनके हत्यारे को गलत ठहराने तक से इनकार करते हैं, वे भी भारत की सार्वजनिक चेतना में रचे-बसे बापू और उनके सिद्धांतों को खारिज नहीं कर सकते. यही महात्मा की विरासत या, खासकर दो संस्थानों पर दावे जताने की वजह भी है. इसमें पहला है साबरमती आश्रम, जहां गांधी ने 1917 से 1930 तक अपने जीवन के 13 महत्वपूर्ण साल बिताए थे. गुजरात सरकार ने इसकी रंगत बदलने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है. दूसरे संस्थान गुजरात विद्यापीठ में शीर्ष पद के साथ-साथ न्यासियों की नियुक्ति को लेकर घमासान मचा हुआ है, इसकी स्थापना महात्मा गांधी ने 1920 में की थी. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) शासित गुजरात में यह दोनों ही घटनाक्रम बापू और उनकी विरासत पर कब्जे के प्रयास के तौर पर देखे जा रहे हैं.
पहले, साबरमती आश्रम की बात करते हैं. बापू की सहज और संयमित जीवनशैली का स्थायी स्मारक बना उनका आवास अब 1,200 करोड़ रुपए की लागत से एक 'विश्वस्तरीय' बदलाव के लिए तैयार है. इसके तहत प्रस्तावित बदलावों में पर्यटन क्षेत्र को मौजूदा पांच एकड़ से बढ़ाकर 55 एकड़ करना, आश्रम को उसी स्थिति में लाना, जैसा वह तब था जब गांधी वहां रहा करते थे, 65 मूल इमारतों में से 48 का पुनर्विकास, 200 कारों की पार्किंग और विशाल फूड कोर्ट की व्यवस्था करना आदि शामिल है. हालांकि, राज्य सरकार का कहना है कि वह आश्रम के उस हिस्से के मौलिक स्वरूप में कोई बदलाव नहीं करेगी जहां गांधी रहा करते थे. लेकिन इस पहल ने अनेक गांधीवादियों को परेशान कर दिया है जिन्हें यह आशंका सता रही है कि पुनर्विकास योजना साबरमती आश्रम की पवित्रता और सादगी को खत्म करके इसे 'गांधी थीम पार्क' में तब्दील कर देगी. 2021 में ऐसे ही 100 से अधिक नागरिकों की तरफ से जारी एक बयान के मुताबिक, यह कदम "मौजूदा आश्रम की पवित्रता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है और उसे महत्वहीन बनाने वाला है." इसका विरोध करने वालों में महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी भी शामिल हैं, जिन्होंने सरकार की योजनाओं को चुनौती दी. लेकिन पिछले साल ही गुजरात हाइकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी.
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