भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आइआइएम) में स्वायत्तता को लेकर करीब छह साल बाद फिर बहस छिड़ गई है. बीते एक दशक में देश के अव्वल बिजनेस स्कूल स्वायत्तता के लिए अपने संघर्ष की वजह से बार-बार सुर्खियों में रहे और इसकी छाया ने अक्सर उनकी अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग और अकादमिक उत्कृष्टता को ढक लिया. दिसंबर 2017 में आइआइएम स्वायत्तता विधेयक ने इन संस्थानों को कामकाज में पूरी आजादी दी और वहीं सरकार ने 20 में से 16 आइआइएम में पैसा लगाना जारी रखा. आइआइएम समुदाय ने इसे अच्छा कदम बताकर इसकी खूब जय-जयकार भी की. मगर हाल में संसद में पारित भारतीय प्रबंधन संस्थान (संशोधन) विधेयक 2023 के जरिए 2017 में दी गई स्वायत्तता में प्रस्तावित बदलावों को लेकर विवाद छिड़ गया है और इस मामले में अलग-अलग नजरिए सामने आ रहे हैं.
नए विधेयक के मुताबिक, राष्ट्रपति हरेक आइआइएम के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में विजिटर की भूमिका निभाएंगे, जिसे अध्यक्ष को मनोनीत करने और हटाने, डायरेक्टर को नियुक्त करने और हटाने की देखरेख करने, और जरूरत पड़ने पर संस्थान के कामकाज का ऑडिट कराने का अधिकार होगा. आलोचकों का कहना है कि इन संशोधन से राजनैतिक दखलअंदाजी के दरवाजे खुल जाएंगे तो दूसरे तबके का दावा है कि ऐसे ही अधिकार 2017 से पहले भी मौजूद थे और संस्थान फिर भी फले-फूले. वे स्वायत्तता के दुरुपयोग और कामकाज के प्रति जवाबदेही और प्रतिबद्धता के न होने की ओर भी इशारा करते हैं - उदाहरण के तौर पर वैश्विक रैंकिंग में गिरावट का हवाला दिया जाता है.
अध्यक्ष और खासकर डायरेक्टर सरीखे प्रमुख पदों को आइआइएम में बहुत ज्यादा अधिकार हासिल हैं. अध्यक्ष संस्थान के बोर्ड की अगुआई करता है, जो वृहत स्तर पर बेहद अहम फैसले लेता है. बोर्ड में राज्य और केंद्र सरकारों के दो नुमाइंदे बैठते हैं जो अक्सर आइएएस अफसर होते हैं.
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