साल 1925 की बात है. गुजरात के सोजित्र गांव में महिला सम्मेलन को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था: “जब तक देश की स्त्रियां सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेतीं, देश का उद्धार नहीं हो सकता." करीब एक सदी बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने नारी शक्ति वंदन अधिनियम लाकर सर्वोच्च स्तर पर सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को सांस्थानिक रूप देने की कोशिश की है. यह अधिनियम लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करेगा. इस साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल आम चुनाव होंगे, ऐसे में यह विधेयक माकूल वक्त पर महिला मतदाताओं को सीधे लुभाने के लिए लाया गया है जो बीते दशक में भाजपा की चुनावी कामयाबी की रीढ़ रही हैं. अपनी शैली के अनुरूप प्रधानमंत्री ने विपक्षी पार्टियों को हैरत में डाल दिया और बेमन से चीयरलीडर बनने को मजबूर कर दिया, और भाजपा उस कानून का सारा श्रेय बटोरने के लिए निकल पड़ी, जिसे चुनावी राजनीति में गेमचेंजर बनाने के मकसद से लाया गया है.
देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की नुमाइंदगी के निराशाजनक ढंग से खराब रिकॉर्ड के साथ यह विधेयक तीन दशकों से वजूद में आने की बाट जोह रहा था. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स यानी वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में (जो तमाम देशों में स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी की नाप-जोख चार आयामों-आर्थिक अवसर, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनैतिक नेतृत्व-पर करता है) भारत करीब 150 देशों में लगातार 100 से निचली पायदान पर रहा. मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की अप्रैल 2023 की रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया कि अगर देश महिलाओं को समान अवसर दे दे, तो 2025 तक उसकी जीडीपी में 770 अरब डॉलर या 18 फीसद का इजाफा हो सकता है. भारत के श्रमबल में सिर्फ 25 फीसद महिलाओं के साथ देश के जीडीपी में महिलाओं का योगदान फिलहाल महज 18 फीसद है, जो दुनिया में सबसे कम है.
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