दिसंबर की 3 तारीख को हिंदी पट्टी के तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में ज्यों ही कांग्रेस की बुरी तरह हार की खबरें आने लगीं, पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 6 दिसंबर को इंडिया गुट के सहयोगी दलों की बैठक बुला ली. 28 विपक्षी दलों का यह गठबंधन चुनावों में भाजपा के खिलाफ मिल-जुलकर लड़ने के लिए इस साल जून में बना था. अब जब लोकसभा के चुनाव महज कुछ ही महीने दूर रह गए हैं, इस बैठक में गठबंधन के चुनावी मंसूबों पर मंथन और शायद सीटों के बंटवारे पर बातचीत शुरू होनी थी. मगर हुआ यह कि बैठक के आह्वान ने इंडिया गुट के भीतर बढ़ती दरारों को उजागर कर दिया, जिसमें सहयोगी दलों ने केंद्रीय भूमिका निभाने की कांग्रेस की कोशिशों को चुनौती दे डाली.
सहयोगी दलों के बीच आपसी तालमेल का अभाव तब जाहिर हो गया जब बैठक होने से महज 24 घंटे से भी कम वक्त पहले इसे दिसंबर के तीसरे हफ्ते के लिए टाल दिया गया. तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बिहार व झारखंड में उनके समकक्षों, क्रमश: जनता दल (यूनाइटेड) या जद (यू) के नेता नीतीश कुमार और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के प्रमुख हेमंत सोरेन ने पहले से तय कार्यक्रमों का हवाला देकर हाथ जोड़ लिए. डीएमके के सुप्रीमो और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन मिचौंग चक्रवात से पैदा तबाही से निबटने में व्यस्त थे. ममता ने तो खुलेआम कह भी दिया कि बैठक तय करने से पहले उनसे सलाह नहीं ली गई.
अपनी अनिच्छा जाहिर करके सहयोगी पार्टियों ने कांग्रेस को एक संदेश भी दे दिया कि वे ग्रैंड ओल्ड पार्टी के एकतरफा फैसलों को अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे. विधानसभा चुनावों में उसके खराब प्रदर्शन के बाद तो और भी, जिसमें तेलंगाना अकेली गनीमत थी, जहां पार्टी ने भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को धूल चटा दी. कांग्रेस को पहले भी न केवल सीटों के बंटवारे को लेकर तकरार के लिए बल्कि विधानसभा चुनावों की वजह से गठबंधन का कामकाज ठप कर देने के लिए भी सहयोगी दलों की आलोचना झेलनी पड़ी थी. बाजी पलट गई थी और अब इसके लिए दूसरे बहुत उत्साहित नहीं थे.
खदबदाता असंतोष
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