महाराष्ट्र के बारामती में नीची छत वाले अस्तबल की इमारत. बगल से छह घोड़े सरपट दौड़ते हुए आए. एक गबरू काला घोड़ा और एक लाल-भूरे रंग की घोड़ी तेज रफ्तार से दौड़ती गुजरी. उनके पीछे उतनी ही तेजी और जोशो-खरोश से दौड़ती सफेद घोड़े और गहरे भूरे रंग की घोड़ी की जोड़ी. चमकती खालें, लहराते अयाल, उड़ती पूंछें और धूल उड़ाते खुर... कुदरती ताकत ऐसी ही होती होगी. मशहूर भीमथड़ी या दक्कनी घोड़ों के खास ढंग से चुने गए ये नमूने मानो 17वीं और 18वीं सदी के अपने उन पूर्वजों के बीच से आए हैं जो दुश्मन पर धावा बोलते और उन्हें मैदान से खदेड़ते मराठा घुड़सवारों की टुकड़ियों में हुआ करते थे. भीमथड़ी नस्ल के घोड़ों की उत्पत्ति महाराष्ट्र की भीमा नदी घाटी से हुई (थड़ी का मतलब है नदीतट) और वे जल्द ही उस मराठा घुड़सवार फौज का नामचीन और खूंखार आधार बन गए जिसका तब भारत के बड़े हिस्से पर वर्चस्व था. जोशीली फुर्ती और सरपट रफ्तार ही नहीं, उनकी खच्चर जैसी दृढ़ता की वजह से सामान ढोने वाले जानवरों के तौर पर भी उनका इस्तेमाल किया जाता था. हट्टी-कट्टी कदकाठी, कम चारा खाकर लंबी दूरी तय करने और अपने वजन से डेढ़ गुना भार ढोने की क्षमता ने उन्हें पसंदीदा घोड़ा - औपनिवेशिक युग वनस्पतिशास्त्री सर जॉर्ज वॉट के शब्दों में, "भारत की सबसे अच्छी नस्लों में से एक" - बना दिया. मगर 19वीं सदी की शुरुआत में मराठा राज्यसंघ के ढहने के बाद भीमथड़ी घोड़े धीरे-धीरे तकरीबन दो सदियों तक उपेक्षा, अनुपयोग और लगभग जानलेवा पतन की ढलान में धंसते गए. दूसरी वजहों ने भी इसमें योगदान दिया, जैसे अंग्रेजों की तरफ से ज्यादा प्रभावशाली नस्लों (उच्च गुणवत्ता और शुद्ध नस्ल के घोड़ों) को तरजीह दिया जाना, आग्नेयास्त्रों का बढ़ता इस्तेमाल और यातायात के मशीनी साधनों का बोलबाला.
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