लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में एक विरोधाभास हमेशा दिखाई देता है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2004 से ही लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतती रही है लेकिन अभी तक एक भी विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाई. वहीं, कांग्रेस कर्नाटक में इन दो दशकों में दो बार स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आ चुकी है लेकिन इस अवधि में हुए चार लोकसभा चुनाव में उसे कभी इकाई अंकों से ज्यादा सीटें नहीं मिलीं.
यह रुझान स्वाभाविक तौर पर यह बताता है कि जब संसदीय चुनावों की बात आती है तो राज्य में भाजपा का पलड़ा भारी रहता आया है. मगर विडंबना यह है कि इसी बात ने 2024 में पार्टी पर भारी दबाव आयद कर दिया है, खास तौर पर ऐसे समय में जब उसके लिए दक्षिणी राज्यों में अपनी सीटों की संख्या को अधिकतम सीमा तक ले जाना बेहद अहम हो गया है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि 2019 के चुनाव में भाजपा ने तकरीबन क्लीन स्वीप करके अपने लिए एक रिकॉर्ड कायम किया था. उसने राज्य में लोकसभा की 28 में से 25 सीटें जीती थीं और अकेले निर्दलीय का समर्थन हासिल करके विपक्ष को महज दो सीटों पर समेट दिया था. तो क्या भाजपा उस कामयाबी को दोहरा सकती है या फिर उससे भी बेहतर कर सकती है?
पार्टी ने नवंबर में इस लक्ष्य की तरफ बढ़ना शुरू किया, जब उसने दिग्गज लिंगायत नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा के बेटे बी. वाइ. विजयेंद्र को राज्य इकाई की अध्यक्षता सौंपकर अपने कायाकल्प की दिशा में कदम बढ़ाए निश्चित तौर पर यह मई 2023 के विधानसभा चुनाव की करारी हार के बाद अधबीच सुधार की कोशिश थी. जुलाई 2021 में उसने येदियुरप्पा को हटाकर बासवराज बोम्मई को कमान सौंपी थी. मई 2023 में पार्टी को मिली तगड़ी हार के कई कारणों में यह बदलाव प्रमुख था. उस चुनाव में कांग्रेस ने पारंपरिक तौर पर भाजपा के समर्थक रहे वीरशैव लिंगायत भी सरीखे राज्य के प्रमुख समुदायों का समर्थ हासिल कर लिया था.
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