दो साल पहले 17 सितंबर का वह नजारा देखते ही बनता था, जब भारतीय वायु सेना के हेलिकॉप्टर नामीबिया से आए आठ चीतों को लेकर उनकी यात्रा के आखिरी चरण में मध्य प्रदेश स्थित कुनो नेशनल पार्क के पालपुर में उतरे. विज्ञान समर्थित इस अंतरमहाद्वीपीय स्थानांतरण ने सारी दुनिया का ध्यान खींचा जो भारत के जंगलों में बड़ी बिल्लियों को दोबारा बसाने की महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा था.
आज के वक्त में लौटें. चीतों की आबादी भले स्थिर हो रही हो, पर जिंदा बचे 24 चीतों - 12 वयस्क और 12 शावक - में से एक भी जंगल में नहीं विचरता. हाल में करीब आठ महीने जंगल में रहा आखिरी चीता पवन अगस्त में मर गया. फिर भी चीतों को लाए जाने की दूसरी सालगिरह पर 17 अगस्त को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने इस परियोजना को 'कामयाब' घोषित कर दिया. फिर क्या था, वन्यजीवन से जुड़े जीववैज्ञानिक और संरक्षणवादी सरकार और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की चीता परियोजना संचालन समिति (सीपीएससी) की तीखी आलोचना करने के लिए मजबूर हो गए. उन्होंने कहा कि यह स्वीकार करना तो दूर कि एक के बाद एक मौतों (देखें: बॉक्स) और चीतों के कैद में रहने की वजह से स्थानांतरण परियोजना पटरी से उतर गई है, उलटे सरकार लगातार अपनी पीठ थपथपा रही है.
सरकार के चीता ऐक्शन प्लान (सीएपी) के मुताबिक, एक साल बाद आयातित चीतों के जिंदा रहने की 50 फीसद दर कामयाबी का संकेत होती, और भारतीय धरती पर जन्मे 20 में से 12 वयस्क चीते और 17 में से 12 शावक जिंदा रहते हैं, तो कम से कम इस लिहाज से परियोजना को नाकाम करार नहीं दिया जा सकता. यादव बताते हैं, "दूसरे देशों की ऐसी ही परियोजनाओं के मुकाबले इस परियोजना को शावकों के जन्म के मामले में अभूतपूर्व कामयाबी मिली है. ये जंगली जानवर हैं, और उनकी पुनर्स्थापना या संरक्षण के लिए किसी भी स्थानांतरण परियोजना के पहले शुरुआती सालों में उतार-चढ़ावों के साथ निराशाजनक मुकाम आएंगे. यह न केवल परियोजना बल्कि चीतों के लिए भी लगातार सीखने-समझने और अपने को ढालने की प्रक्रिया है."
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