भारत में टीबी का इन्फैक्शन बुरी तरह से व्याप्त है. देश में हर साल हजारोंलाखों नए टीबी के मरीज प्रकाश में आते हैं. टीबी से मरने वालों की संख्या हर साल 8 लाख के करीब होती है. टीबी के मरीजों में बहुत से लोग समुचित और नियमित इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं. कुछ लोग टीबी का सफल इलाज करवा कर इस जानलेवा इन्फैक्शन से नजात तो पा जाते हैं पर यहीं किस्सा खत्म नहीं होता. टीबी के सफल इलाज के बाद भी खांसी के साथ रक्तमिश्रित बलगम का आना जारी रहता है.
टीबी के इन्फैक्शन से कभी पीड़ित रह चुका मरीज यह सोचता है कि टीबी का इन्फैक्शन खत्म होने के बावजूद खांसी से खून की व्यथा से वह क्यों अभी भी पीड़ित है. टीबी के इन्फैक्शन के दौरान भी खांसी में खून की शिकायत थी. अब बुखार और अन्य लक्षण तो गायब हो गए हैं पर खांसी, बलगम व खून की शिकायत अब भी बरकरार है.
इस का कारण मरीज को समझ में तो आता ही नहीं है पर साथ ही साथ चिकित्सक लोग भी इस का कारण ठीक से समझ नहीं पाते. परिणाम यह होता है कि वे ऐसे मरीजों को दोबारा से अगले 6 महीने के लिए फिर से टीबी का इलाज शुरू करवा देते हैं. ज्यादातर चिकित्सकों की यह धारणा होती है कि शायद टीबी का इन्फैक्शन जड़ से गया ही नहीं है.
खांसी में खून आना
टीबी के सफल इलाज के बावजूद खांसी में खून आने के लिए जिम्मेदार 'एस्पर्जिलस फ्यूमिगेटस' नामक फंगस किस्म का कीटाणु है जो डोरेनुमा आकार का होता है. इस कीटाणु का फेफड़े के अंदर स्थायी रूप से बस जाना ही खांसी में खून का एक प्रमुख कारण है.
होता यह है कि टीबी के सफल इलाज के बावजूद फेफड़े से टीबी तो स्थायी रूप से खत्म हो जाती है पर टीबी जातेजाते फेफड़े के अंदर खोखले स्थान छोड़ जाती है. इन खोखले स्थानों में 'एस्पर्जिलस' नामक फंगस श्वास नली के जरिए पहुंच कर अपना स्थायी डेरा बना लेता है. ठीक उसी प्रकार जैसे किसी पेड़ के तने में स्थित खोखले स्थान में कोई पक्षी अपना घोंसला बना लेता है.
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