मायावती की जेब में अब नहीं दलित वोटर
Sarita|February First 2024
दलित राजनीति का वह दौर अब खत्म हो गया जब बसपा अपने वोट किसी भी दल को ट्रांसफर करवा देती थी. मायावती दलित मुद्दों की जगह पौराणिकता में उलझ गई हैं. उन का नारा 'तिलक तराजू' बदल कर 'हाथी नहीं गणेश है' हो गया है. दलित वोटर अब पढ़ालिखा है. उसे पता है कि राममंदिर से उसे कुछ नहीं मिलना. दलित समाज की बात करने वाली मायावती अब अपने परिवार को आगे बढ़ा रही हैं. ऐसे में वोटर अब मायावती की जेब से बाहर निकल चुका है.
मायावती की जेब में अब नहीं दलित वोटर

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है, 'मायावती डर की वजह से अलग राह पर चलने का फैसला कर रही हैं.' असल में मायावती अगर 'इंडिया' ब्लौक का हिस्सा बनतीं तो गठबंधन के दूसरे दलों के लिए मुश्किल हो जाती. मायावती और ममता बनर्जी दोनों जिस स्वभाव की नेता हैं, उस से उन के साथ किसी का तालमेल होना कठिन है. इन दोनों से ही 'इंडिया' ब्लौक को कोई लाभ नहीं होने वाला. मायावती और ममता बनर्जी दोनों के ही अगले कदम का किसी को पता नहीं होता.

2014 के बाद से मायावती का रुझान मोदी सरकार की तरफ रहा है. ममता बनर्जी तो एनडीए का हिस्सा ही रह चुकी हैं. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सीमित हैं. बाकी देश में उन के नाम पर वोट नहीं. यही हाल मायावती का है. उत्तर प्रदेश में वे भले ही खुद के पास 13 फीसदी दलित वोट मान कर चल रही हों पर होने वाले लोकसभा चुनाव को देखें तो वे अपने बलबूते एक भी सीट जीतने की हालत में नहीं हैं.

बहुजन समाज पार्टी पहले 'तिलक, तराजू और तलवार....' का नारा दे कर मनुवाद का विरोध करती थी. मनुवाद के लोग कैसे दलित समाज पर अत्याचार करते हैं, इस को ले कर वे नुक्कड़ नाटक करती थीं. कांशीराम ने बसपा को ओबीसी और दलित वोटर के सहारे आगे बढ़ाने का काम किया था. यह कारवां आगे बढ़ता तो सब से पहला प्रभाव समाजवादी पार्टी पर पड़ता. इसलिए पिछड़ों के नेता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सपा-बसपा का गठबंधन कर 'मिले मुलायम कांशीराम...' का नारा दे कर 1993 में सरकार बना ली.

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