![हल्द्वानी हिंसा कहीं धर्मयुद्ध का आगाज तो नहीं हल्द्वानी हिंसा कहीं धर्मयुद्ध का आगाज तो नहीं](https://cdn.magzter.com/1338812051/1708753761/articles/nc2L4tW__1709102867573/1709103292661.jpg)
देश के हर शहर में एक इलाका ऐसा होता है जिसे कराची, इसलामाबाद या लाहौर कहा जा सकता है. इन इलाकों के बारे में प्रचार यह किया जाता है कि यहां दुनियाभर के जुर्म पनपते हैं, देशदुनिया के तस्कर यहां पनाह लेते हैं. चोरी, तस्करी, देह व्यापार यहां आम होते हैं. और सब से बड़ी बात, हिंदू इन इलाकों में पांव रखने से भी खौफ खाते हैं क्योंकि यहां राज मुसलमानों का चलता है. पुलिस प्रशासन, कानून व्यवस्था इन इलाकों में आ कर बेबस हो जाते हैं. यही अब बनभूलपुरा के बारे में कहा जा रहा है.
उत्तराखंड के हल्द्वानी में जो हुआ उस की वजह कहने को भले ही एक नाजायज मजार या मसजिद, कुछ भी कह लें, को हटाना हो पर हकीकत कुछ और भी है. एक दुष्प्रचार के तहत यह कहा जा रहा है कि बीती रात 8 फरवरी को कट्टरपंथी दंगाइयों ने जो उपद्रव किया वह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. दंगाइयों ने इस की तैयारी बहुत पहले से ही कर रखी थी. जब से यहां की ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती और नई बस्ती में रेलवे वन विभाग व राजस्व की जमीनों पर अतिक्रमण किए जाने का मामला सुर्खियों में आया तब से यह आशंका जताई जा रही थी कि एक न एक दिन ऐसा होगा.
हल्द्वानी बना कुरुक्षेत्र
बनभूलपुरा हल्द्वानी का मुसलिम बाहुल्य इलाका है जिस में मुसलमानों की आबादी 90 फीसदी है. एकाएक ही सुर्खियों में आए इस इलाके में 8 फरवरी की हिंसा में 4 लोग मारे गए थे और 100 के लगभग घायल हुए थे. इस दिन नगरनिगम की जेसीबी मशीनों की मौजूदगी ही बयां कर रही थी कि कुछ अनहोनी होने जा रही है. ये मशीनें जैसे ही मसजिद तोड़ने लगीं तो हिंसा भड़क उठी. इस के पहले 29 जनवरी को पुलिस की मौजूदगी में बनभूलपुरा के मालिक के बगीचे की कोई 2 एकड़ जमीन अतिक्रमण से मुक्त कराई गई थी. लेकिन उस दिन मसजिद और मदरसे को नहीं तोड़ा गया था. प्रशासन ने वहां फेंसिंग कर दी थी.
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मौन का मूलमंत्र जिंदगी को बनाए आसान
हम बचपन में बोलना तो सीख लेते हैं मगर क्या बोलना है और कितना बोलना है, यह सीखने के लिए पूरी उम्र भी कम पड़ जाती है. मौन रहना आज के दौर में ध्यान केंद्रित करने की तरह ही है.
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सरकार थोप रही मोबाइल
सरकार द्वारा कई स्कीमों को चलाया जा रहा है. बिना एडवांस मोबाइल फोन और इंटरनैट सेवा की इन स्कीमों का फायदा उठाना असंभव है. ऐसा अनावश्यक जोर क्या सही है?
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सास बदली लेकिन नजरिया नहीं
सास और और बहू को एकदूसरे की भूमिका को स्वीकार करना चाहिए. सास पुरानी परंपराओं का पालन करते हुए बहू को सिखा सकती है और बहू नई सोच व नए दृष्टिकोण से घर को बेहतर बना सकती है.
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अमेरिका में भी पनप रहा ब्राह्मण व बनिया गठजोड़
डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही अमेरिका में एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी है जिसे ले कर हर कोई आशंकित है कि अब लोकतंत्र को हाशिए पर रख धार्मिक एजेंडे पर अमल होगा.
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किस संतान को मिले संपत्ति पर ज्यादा हक
यह वह दौर हैं जब पेरैंट्स की सेवा न करने वाली संतानों की अदालतें तक खिंचाई कर रही हैं लेकिन मांबाप की दिल से सेवा करने वाली संतान के लिए जायदाद में ज्यादा हिस्सा देने पर वे भी अचकचा जाती हैं क्योंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है. क्या यह ज्यादती नहीं?
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युवाओं के सपनों के घर पर डाका
नौकरीपेशा होम लोन ले कर अपने सपनों का आशियाना खरीद लेते हैं. लेकिन यहां समस्या तब आती है जब किसी यूइत में वे लोन नहीं चुका पाते. ऐसे में कई बार उन्हें अपने घर से हाथ धोना पड़ता है.
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बूफे पार्टी में मेहमान भोजन और अच्छे समय का आनंद लेने के साथसाथ सोशल गैदरिंग के चलन को भी जीवित रखते हैं. यह अवसर न केवल खानपान के लिए होता है बल्कि यह लोगों के बीच बातचीत, हंसीमजाक और आपसी विचारों के आदानप्रदान का एक साधन भी है.
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एक तरह के हादसे पर कानून दो तरह से कैसे काम कर सकता है? क्या यह न्याय और संविधान दोनों का अपमान नहीं ?
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कुछ लोगों में अपने रुतबे को ले कर अहंकार होता है. उन्हें लगता है कि उन का ओहदा, उन का पद बैस्ट है. वे सुपीरियर हैं. यह सोच अहंकार और ईगो लाती है जो इंसान के व्यवहार में अड़चन डालती है.
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बंटोगे तो कटोगे वाला नारा प्रधान राष्ट्र
देश नारा प्रधान है. काम भले कुछ न हो रहा हो पर पार्टियां और सरकारों द्वारा उछाले नारों की खुमारी जनता पर खूब छाई रहती है.