नींद की गोलियां इतनी भी नुकसानदेह नहीं

किस बात को प्राथमिकता में रखेंगे आप, खराब क्वालिटी वाली आधीअधूरी नींद से पैदा होने वाली जिंदगीभर साथ निभाने वाले चिड़चिड़ेपन, डिप्रेशन, ब्लडप्रैशर, डाइबिटीज, दिल की बीमारियों, इनडाइजेशन, एंग्जायटी वगैरह जैसी वक्त के साथ लाइलाज हो जाने वाली बीमारियों को या फिर नींद की एक छोटी सी गोली खा कर सुकून की नींद लेना.
निश्चित रूप से अगर स्लीपिंग पिल्स यानी नींद की गोलियों के प्रति आप के दिलोदिमाग में आयुर्वेदनुमा कोई पूर्वाग्रह नहीं है तो आप दूसरा विकल्प चुनना पसंद करेंगे. लेकिन इस में एहतियात और डाक्टरी मशवरे की उतनी ही जरूरत है जितनी कि ओटीसी पर बिकने वाली किसी भी मैडिसिन के लिए होनी चाहिए.
न जाने क्यों हमारे समाज में नींद के लिए गोलियों का सेवन किसी अपशकुन सा तय कर दिया गया है जबकि इस के पीछे कोई वजनदार तर्क नहीं है और कोई तर्क है भी तो बस इतना है कि इन से नुकसान होते हैं, इन के साइडइफैक्ट होते हैं. ये बुरी होती हैं और इन की लत लग जाती है यानी एडिक्शन हो जाता है जो नशे सरीखा होता है. बिलाशक ऐसा है पर एक तात्कालिक आशंका के तौर पर ज्यादा है वरना हमारे इर्दगिर्द दर्जनों ऐसे लोग मिल जाएंगे जो सालों से नींद की गोलियां ले रहे हैं और दूसरों से कहीं ज्यादा फिट हैं.
रही बात लत या एडिक्शन की तो हालत तो यह है कि 80 से 90 फीसदी लोग किसी न किसी दवा के एडिक्ट हैं. पेंटाप्रजोल से ले कर टेलमिस्टाइन मेटमौर्फिन, रोसवासटिन, इकोस्प्रिन में से सभी या कोई एक या ऐसी ही कोई दूसरी दवा हो सकती है जिसे लोग बिना नागा ले रहे हैं जो एसिडिटी, शुगर, हार्ट, लिवर या किडनी से जुड़ी बीमारियों के लिए हो सकती है. साइडइफैक्ट तो इन दवाओं के भी होते हैं पर बदनामी नींद की गोली की झोली में डाल दी गई है.
तो फिर कठघरे में स्लीपिंग पिल्स ही क्यों जो 6-8 घंटे की क्वालिटी वाली नींद की गारंटी है. वही नींद जिस के लिए लगभग 70 फीसदी लोग तरसते हैं और इस के लिए कोई भी कीमत अदा करने को तैयार हैं. रातभर करवटें बदलते रहने वाले नींद का इंतजार कितनी शिद्दत से करते हैं.
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