विश्लेषक कहते हैं कि भाजपा यूपी में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2014 में कर चुकी है। अब सभी 80 सीटें जीत पाना तो दो पत्थरों के बीच दूब उगाने जैसा होगा। हालांकि, ऐसा करिश्मा आपातकाल के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में हो चुका है। तब जनता पार्टी उस समय की सभी 85 सीटों पर अपना परचम फहराने में कामयाब हुई थी। सियासी पंडितों का तर्क है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा 16 सीटें हार गई थी। उपचुनाव में आजमगढ़ और रामपुर दो सीटें जीतीं जरूर, लेकिन मुकाबला कड़ा रहा।
सपा के गढ़ वाली मैनपुरी और कांग्रेस का किला रही रायबरेली दो ऐसी सीटें हैं, जो भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण रही हैं। पिछले चुनाव में हारी और कड़े मुकाबले वाली 20 से ज्यादा सीटों के हालात अब भी पिछले आमचुनाव से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। उल्टा कई सीटों पर मोदी फैक्टर की जगह प्रत्याशी फैक्टर हावी है। अब तक घोषित 63 सीटों में से करीब 10 ऐसी हैं, जहां मतदाता इस बार भाजपा से नए चेहरे की उम्मीद कर रहा था। पर, पार्टी ने 'रामलहर' का प्रभाव मानकर पुराने को ही उतार दिया।
एक अहम बात - साल 2014 और 2017 के चुनाव की तरह तत्कालीन सरकार के खिलाफ वाला माहौल भी नहीं है। सरकार भाजपा की है। 2014 की तरह चतुष्कोणीय मुकाबला नहीं है। तब भाजपा-अपना दल, कांग्रेस- रालोद महान दल गठबंधन के अलावा बसपा और सपा के बीच चतुष्कोणीय चौसर सजी थी। 2019 की तरह महागठबंधन जरूर सामने नहीं है, लेकिन त्रिकोण बनाने को मैदान में उतरी बसपा के पास पहले जैसे दमदार प्रत्याशी नजर नहीं आ रहे हैं।
दूसरा, 2019 में बसपा प्रदेश की 37 सीटों पर मैदान में नहीं थी। ऐसी सीटों पर अपवाद स्वरूप छोड़कर दलित वोट महागठबंधन के बजाय भाजपा की ओर शिफ्ट हो गया था, जिसकी वजह से भाजपा की सीटें 2014 की अपेक्षा घटने के बावजूद मत प्रतिशत बढ़ गया था।
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