सन 2020 में जब संसद ने विपक्षी दलों के बहिष्कार के बीच 29 तत्कालीन श्रम कानूनों की जगह तीन नए श्रम सुधार कानून पारित किए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'भविष्योन्मुखी विधान' कहकर इनका स्वागत किया था और कहा कि इससे श्रमिकों के हालात सुधरेंगे, अनुपालन का बोझ कम होगा और आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी।
करीब तीन वर्ष बाद भी श्रम संगठनों तथा कई राज्यों के कड़े विरोध के चलते ये कानून ठंडे बस्ते में हैं। अब जबकि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम चरण में प्रवेश कर रही है तो आम चुनाव के पहले उसके पास अपने अधूरे एजेंडे को पूरा करने के लिए अधिक वक्त नहीं बचा है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमित बसोले कहते हैं कि श्रम कानूनों के मकड़जाल के कारण नए कानूनों की जरूरत पड़ी। बहरहाल, सरकार के लिए जरूरी है कि वह उद्यमियों की जरूरत और लचीले और कम नियमन वाले अनुपालन तथा श्रमिक कल्याण को लेकर तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा संतुलन कायम करे।
वह कहते हैं, 'श्रम कानूनों की मदद से श्रमिकों की अनुबंध तथा अन्य दिक्कतों को अच्छी तरह निपटाना था। चूंकि श्रम मामले राज्यों का विषय हैं इसलिए सभी राज्यों को साथ लाने में मशक्कत लगेगी। लगता नहीं कि आम चुनाव तक ये कानून प्रवर्तित हो सकेंगे। इन कानूनों की मदद से वृद्धि और रोजगार को बढ़ाने के लिए सरकार को कराधान, बुनियादी ढांचे तथा व्यापार नीतियों में भी संशोधन करने होंगे।'
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