एक समय था जब सरकार पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण रखती थी और उन कीमतों में नियमित रूप से बदलाव नहीं होता था। दुनिया भर में पेट्रोल की कीमतें बढ़ती थीं, लेकिन भारत में नहीं बढ़ती थीं। इससे अंतर बढ़ता, आर्थिक विसंगति बढ़ जाती और दबाव भी उत्पन्न हो जाता। उसके बाद एकाएक झटके से कीमत बहुत बढ़ जाती। कीमतों में इतना बड़ा इजाफा अर्थव्यवस्था के लिए सदमे की तरह होता। नीति बनाने वालों ने इन अनुभवों से सबक लिया कि कीमतों में बार-बार छोटा-छोटा बदलाव करना ज्यादा अच्छा होता है। वैश्विक बाजार में चल रही कीमतों के हिसाब से ही देश में भी कुछ दिन पेट्रोल के दाम बढ़ जाने चाहिए और कुछ दिन उनमें कमी आनी चाहिए। पेट्रोल की कीमत स्थिर नहीं होनी चाहिए।
यही बात विनिमय दर पर भी लागू होती है। विनिमय दर को कुछ समय तक थामे रखना संभव है। परंतु मुक्त बाजार में उसकी कीमत और सरकार द्वारा तय कीमत में अंतर आने लगता है। इससे आर्थिक गड़बड़ी शुरू होती है और कुछ समय में नीति निर्माताओं को इसका पता चल जाता है। तब विनिमय दर में एकाएक बड़ा बदलाव होता है, जो मुक्त बाजार की विनिमय दर में रोज होने वाले बदलाव से ज्यादा उथल-पुथल पैदा कर देता है।
अब कंपनी की बात करते हैं। हर कंपनी को कीमतों में उतार-चढ़ाव झेलना पड़ता है। स्टील की कीमतों में उतार-चढ़ाव आता है, प्राकृतिक गैस के दाम घटते-बढ़ते हैं, लीथियम आयन बैटरी की कीमतों में उतार-चढ़ाव आता है, सीपीयू की कीमत गिरती-चढ़ती है और येन तथा रुपये की विनिमय दर में बदलाव आता है (भले ही डॉलर और रुपये की कीमतों पर सरकार नियंत्रण रखे)। कारोबार का अर्थ यही है कि इस तरफ नजर रखी जाए और देखा जाए कि लगातार बदलती दुनिया में धन कैसे कमाया जा सकता है। कमजोर कंपनियां आसान रास्ता ढूंढती हैं। वे चाहती हैं कि सरकार उन्हें एक स्थिर माहौल दे जहां स्टील, सीमेंट, पेट्रोल, डॉलर-रुपये आदि की कीमतें एक जगह टिकी रहें।
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