ऐसे में समझ नहीं आ रहा कि हवा का रुख किस तरफ है। यह भी कहा जा सकता है, कि नतीजों का दारोमदार बागियों की ताकत पर टिका है। क्योंकि, ये भले जीत न सकें, पर दूसरों का खेल बिगाड़ने में माहिर साबित होंगे। पार्टी से बगावत करने में कांग्रेस के नेताओं की संख्या भाजपा से ज्यादा है। ऐसे में दोनों पार्टियों ने कोशिश भी की, कि नाराज नेताओं को किसी तरह मना लिया जाए, पर कोशिश उम्मीद के मुताबिक कामयाब नहीं हुई।
मध्यप्रदेश की राजनीति 18 साल से एक तरह से ठहर सी गई थी। 2003 में जब दिग्विजय सिंह को हराकर उमा भारती ने प्रदेश में भाजपा का झंडा गाड़ा था, उसके बाद से तो कांग्रेस हाशिये से भी नीचे चली गई थी। 2018 से पहले तक भाजपा का एकछत्र राज रहा। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को चंद सीटों का बहुमत पाकर सत्ता से धकेल दिया था।
कमलनाथ ने 15 महीने सरकार चलाई ही थी, कि अचानक राजनीतिक भूचाल आ गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 राजनीतिक सैनिकों को लेकर कांग्रेस में बगावत कर दी। इस प्रसंग ने गुजरात में 1975 में हुई केशुभाई पटेल की सरकार के खिलाफ बगावत की याद दिला दी, जब शंकरसिंह वाघेला ने अपने समर्थक विधायकों को लेकर खजुराहो में डेरा डाल दिया था। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया उससे आगे बढ़कर भाजपा में शामिल हो गए और प्रदेश में फिर भाजपा ने सरकार बना ली। मध्यप्रदेश विधानसभा में फिलहाल भाजपा के 127 विधायक, कांग्रेस के 96 विधायकों के अलावा 4 निर्दलीय विधायक, दो बसपा के और एक समाजवादी पार्टी का विधायक है। 230 विधानसभा सीटों वाली विधानसभा बहुमत के लिए 116 विधायक होना जरूरी है।
प्रदेश में सिंधिया की बगावत के बाद जो हुआ, वो एक लम्बी राजनीतिक गाथा है! क्योंकि, जिस भी इलाके में सिंधिया समर्थकों ने भाजपा में घुसपैठ की, वहां भाजपा के पुराने नेताओं में असंतोष पनपा। भाजपा में सबसे ज्यादा नाराजगी ग्वालियर-चंबल इलाके में दिखाई दी। इसके अलावा मालवा इलाके की कुछ सीटें भी भाजपा नेताओं की नाराजगी का शिकार बनी। यही कारण है, कि इस बार का विधानसभा चुनाव भी उस बगावत से मुक्त नहीं है।
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