समाज एक गत्यात्मक संस्था है, जो शाश्वत प्रगति एवं भाईचारे के पथ पर अग्रसर होकर अपने समस्त घटकों की खुशहाली सुनिश्चित करती है। समतापरक सुसंस्कृत समाज का निर्माण, संचालन एवं अस्तित्व किसी व्यक्ति, जाति, वर्ण, वर्ग या समुदाय विशेष के योगदान से नहीं होता है। समाज की संपूर्णता एवं सजीवता के निमित्त प्रत्येक व्यक्ति की खुशहाली, सहभागिता एवं समर्पण बेहद जरूरी है, चाहे वह किसी भी जाति, संप्रदाय, वर्ण या समुदाय का हो। समाज में समरसता के बिना बंधुत्व, सौहार्द और एकता की कल्पना संभव नहीं है।
सामाजिक समरसता का मूलमंत्र समानता है, जो समाज में व्याप्त सभी प्रकार के भेदभावों एवं असमानताओं को जड़-मूल से नष्ट कर नागरिकों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द में वृद्धि तथा सभी वर्गों में एकता का संचार करती है। समरसता का आशय भी है कि संसार में विद्यमान चेतन- अचेतन जगत के समस्त घटकों को अपने समान समझना, आदर-सत्कार एवं प्रेम करना, क्योंकि ये सब स्व का ही विस्तार हैं। इसलिए हमें मनसा-वाचा- कर्मणा से यह तथ्य स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रकृति के सभी घटक चेतनशील हैं एवं उन सभी के विकास से ही मानव समाज का सर्वतोमुखी विकास संभव है। सनातन संस्कृति में जाति, वर्ण, वर्ग, समुदाय, कुल, वंश, रंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव जैसी किसी व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण नहीं मिलता। फिर भी प्रचारित किया गया कि कुछ वर्गविशेष के साथ भेदभाव एवं अन्याय हुआ और उन्हें शिक्षा सहित अन्य मूलभूत संसाधनों से वंचित रखा गया, जिससे वह विकास की धारा में सम्यक रूप से गतिमान नहीं हो सके। विपरीत इसके सनातन संस्कृति में मूलतः कर्म ही वर्ण व्यवस्था का केंद्र बिंदु था। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैंने गुण व कर्म के आधार पर इस सृष्टि में चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की रचना की है- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।" यहां जातिगत भेदभाव का लेशमात्र भी संकेत नहीं है। जब भी व्यक्ति या समाज पथ विचलित हुआ, तब युग पुरुषों ने उनका मार्गदर्शन किया। कौरवों ने पांडवों के साथ समरसता नहीं बरती, तो श्रीकृष्ण को हस्तक्षेप करना पड़ा। रावण ने विभीषण और बाली ने सुग्रीव के साथ समरसता नहीं बरती, इसलिए भगवान राम को हस्तक्षेप करना पड़ा।
समरसता के सूत्र
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