जब स्थानीय भाषा, संस्कृति और परंपराओं की बात आती है तो तमिलनाडु की पहचान अन्य किसी भी राज्य की तुलना में अत्यंत आक्रामक राज्य के रूप में की जाती है। यद्यपि यहां 'अब्राहमिक रिलीजन' अपने नाना रूपों में बहुत तेज गति से पैर पसार रहे हैं, परंतु इसे सहज ही देखा जा सकता है कि कन्वर्जन के बावजूद यहां का लोकमन तमिल संस्कृति और परंपराओं को स्वाभाविक रूप से जीने में विश्वास रखता है।
यही कारण है कि 2014 में जब भारतीय जीव-जंतु कल्याण बोर्ड ने 'पशुओं के प्रति क्रूरता और सार्वजनिक सुरक्षा को खतरे' का हवाला देते हुए 'जल्लीकट्टू' पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की और न्यायालय ने इस खेल में बैलों के उपयोग के साथ देशभर में 'बैलगाड़ी दौड़' पर प्रतिबंध लगा दिया, तब तमिल लोकमन उद्वेलित हो उठा था। इसलिए न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए तमिलनाडु सरकार को एक याचिका दायर करनी पड़ी, लेकिन 2015 में शीर्ष न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। लिहाजा, प्रतिबंध के विरुद्ध व्यापक लोकान्दोलन को देखते हुए विधानसभा ने 2017 में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में संशोधन के लिए एक विधेयक पारित कर 'जल्लीकट्टू' के आयोजन के लिए एक नया रास्ता निकाला।
जल्लीकट्टू की पुरातनता
राज्य सरकार ने 'जल्लीकट्टू' पर प्रतिबंध को अनुचित मानते हुए इसकी प्राचीनता को रेखांकित किया। राज्य सरकार ने इस संबंध में ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहा था कि जल्लीकट्टू की उत्पत्ति सिन्धु सभ्यता से हुई है। पुरातात्विक स्थल से मिलीं टेराकोटा की तख्तियों पर जल्लीकट्टू उत्सव के अंकन से इसकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। संगम साहित्य के पांच तमिल महाकाव्यों में से एक 'सिलप्पाटिकरम' या 'सिलपथिकारम' और अन्य प्राचीन साहित्यिक रचनाओं में 'कलिथोगई' और 'मलाईपादुकादाम', जो कि तमिल साहित्य के 'संगम युग' से संबंधित हैं, उनमें 'जलिकट्टू' के आयोजन और लोकरंजन के संदर्भ उल्लिखित हैं।
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