भगवान् श्रीगणेश की आराधना का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्त्व है। प्राचीन काल से ही भारत में गणेश पूजन की परम्परा रही है। प्रथम पूज्य हैं ‘श्रीगणेश’। कोई भी शुभ कार्य गणेश पूजा से ही प्रारम्भ होता है। पंचदेवों में गणेश जी का प्रमुख स्थान है। इसका एक कारण यह भी है कि गणेश जी को जिस प्रकार विघ्नविनाशक माना गया है, वैसे ही विघ्नेश्वर भी हैं।
प्राचीन वाङ्मय में गणेश आराधना
देवताओं में गणेश का स्थान सर्वोपरि माना गया है। पुराण ग्रन्थों के अतिरिक्त वेदों में भी श्रीगणेश की स्तुति का वर्णन हुआ है। वहाँ गणेश ब्रह्मणस्पति हैं। यथा;
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे, कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः, शृण्वन्नूतिभि: सीद सादनम् ॥
- ऋग्वेद, 2/23/1
गणपति को प्राचीन वाङ्मय में अनेक नामों से पुकारा गया है। यथा; गजानन, गणपति, लम्बोदर, शिवपुत्र, पार्वतीसुत, भवानीनन्दन, गणाधीश, एकदन्त, गणनायक, सिद्धिदाता, विनायक एवं वक्रतुण्ड आदि। इसी प्रकार गणेश के 108 नाम भी हैं।
ज्ञान एवं बुद्धि के देवता होने के कारण वे अन्य देवताओं यथाः इन्द्र, वरुण, अग्नि, सोम आदि से ऊपर माने गए हैं। यजुर्वेद, अथर्ववेद में भी 'गणपति' शब्द का उल्लेख हुआ है। तन्त्र साहित्य में भी गणपति आराधना का उल्लेख है। पुराणों में ब्रह्मवैवर्तपुराण, गणेश पुराण, शिवपुराण, पद्मपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, मत्स्यपुराण और श्रीमद् भागवतपुराण आदि में गणेश आराधना का उल्लेख है। उपनिषदों में ‘गणपत्युपनिषद्’ के नाम से प्रसिद्ध है। वैदिक वाङ्मय के अनुसार 'एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्' मन्त्र के साथ गणपति की वन्दना प्रारम्भ की जाती है।
गणेश जी का परिवार
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