'कार्तिक शुक्ल नवम्यां तु अक्षय नवमी व्रतम्' के मुताबिक प्रत्येक वर्ष की कार्तिक मास की शुक्लपक्ष नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा जाता है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार इस तिथि पर किए जाने वाले कर्मों का फल 'अक्षय' हो जाता है। अक्षय का अर्थ है, जिसका क्षय नहीं होता अर्थात् कभी नहीं घटता।
इस अक्षय नवमी को सौभाग्यवती महिलाएँ अखण्ड सौभाग्य तथा तेजोमयी सन्तान के लिए व्रत रखती हैं। इसे 'आँवला नवमी' तथा 'कूष्माण्डा नवमी' भी कहते हैं। ओडीशा में इसे 'कृत युगसदि' अर्थात् 'कलियुग की स्थापना की नवमी' भी कहा जाता है। मध्य तथा दक्षिण भारत में इस नवमी को जगत्माता पार्वती की भी पूजा होती है। वृन्दावन में जुगल जोड़ी राधाकृष्ण की परिक्रमा का भी विधान है। समस्त भारत में अक्षय नवमी किसी न किसी रूप में मनाई जाती है। ज्यादातर स्थानों पर आँवले के वृक्ष की पूजा की जाती है या फिर मृत्तिका के विष्णु भगवान् बनाकर उसे आँवले के लेप के पश्चात् धूप, दीप, दूब आदि से उपासना की जाती है। साथ ही अक्षय सौभाग्य के लिए वरदान माँगा जाता है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार द्वापर युग में सती ने अखण्ड सौभाग्य तथा यशस्वी सन्तान के लिए भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए आँवले के पेड़ के नीचे तप किया था। तब भगवान् विष्णु सती के तप से प्रसन्न होकर वहाँ प्रकट हुए थे। सती के चहुँओर आँवले के ढेर लगे हुए थे। उन सारे आँवलों को तपोबल से लुगदी बनाकर भगवान् विष्णु का लेप कर दिया। आँवले के प्रभाव को देखकर भगवान् ने सती को अखण्ड सौभाग्य तथा उनकी कोख से राजा हरिश्चन्द्र जैसे महादानी पुत्र का वरदान दिया। साथ ही आँवले के फल को औषधीय गुणों का वरदान मिला। धर्मपुराणों में लिखा है कि आँवले के वृक्ष में आमलकी देवी का पूजन करना चाहिए। इससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। आँवले के गुणों तथा महत्ता को बनाए रखने के लिए हमारे धर्मशास्त्रों में अत्यधिक पूज्यभाव प्रदर्शित किए गए हैं। उसकी महत्ता के बारे में पुराणों में रोचक चर्चा है।
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सात धामों में श्रेष्ठ है तीर्थराज गयाजी
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सेतुबन्ध और श्रीरामेश्वर धाम की स्थापना
जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
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