मराठों के उत्कर्ष का इतिहास शिवाजी के पिताजी शाहजी भोंसले के समय से प्रारम्भ हो गया था। शाहजी से पूर्व मराठा परमाणुओं की तरह दक्षिण-पश्चिम भारत के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बिखरे हुए थे। शाहजी द्वारा प्रारम्भ किया गया मराठों के उत्कर्ष का पूर्ण कार्य उनके पत्र शिवाजी ने शिवाजी ने पूरा किया था।
शिवाजी के जन्म के विषय में अनेक विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। ज्योतिष के प्रसिद्ध विद्वान् बी. वी. रमन ने विभिन्न स्रोतों की जानकारी के अनुसार इनकी जन्म तारीख 19 फरवरी, 1630 ईस्वी निर्धारित की है। उनके अनुसार इस दिन सायंकाल में सिंह लग्न और धनु नवांश में शिवाजी का जन्म पूना के उत्तर दिशा में स्थित जुन्नार नगर के समीप शिवनेर के पहाड़ी किले में हुआ था।
ऐसा माना जाता है कि शिवाजी का जन्म माँ भवानी की कृपा से हुआ था। इसी कारण उनका नाम शिवाजी रखा गया। जब वे सात वर्ष के तो उनके पिता ने उनकी माता का परित्याग कर दिया और उन्हें दादाजी कोंणदेव के संरक्षण में पहले शिवनेर और फिर पूना में छोड़ दिया। उनकी माता जीजाबाई ईश्वर की परम भक्त और पतिव्रता स्त्री थीं। शाहजी के त्यागने के कारण शिवाजी और उनकी माता के मध्य परस्पर बहुत अधिक स्नेह विद्यमान हो गया था। बालक शिवाजी का अपनी माता के प्रति ऐसा प्रेम था, जैसा कि भक्त का भगवान् से।
शिवाजी बचपन से ही निर्भीक और साहसी बालक थे, जिसने अपने से उच्च अधिकारी की अधीनता में रहना, तो मानो सीखा ही नहीं था। शिवाजी की माता, गुरु एवं संरक्षक दादाजी कोंणदेव ने उन्हें हिंद धर्म और शास्त्रों की शिक्षा दी थी। इसके साथ ही उन्हें सैनिक शिक्षा भी प्रदान की गई। अधिक पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद शिवाजी ने रामायण, महाभारत तथा दूसरे हिंदू शास्त्रों का ज्ञान सिर्फ सुनकर ही कर लिया था।
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सात धामों में श्रेष्ठ है तीर्थराज गयाजी
गया हिन्दुओं का पवित्र और प्रधान तीर्थ है। मान्यता है कि यहाँ श्रद्धा और पिण्डदान करने से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है, क्योंकि यह सात धामों में से एक धाम है। गया में सभी जगह तीर्थ विराजमान हैं।
सत्साहित्य के पुरोधा हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रसिद्ध धार्मिक सचित्र पत्रिका ‘कल्याण’ एवं ‘गीताप्रेस, गोरखपुर के सत्साहित्य से शायद ही कोई हिन्दू अपरिचित होगा। इस सत्साहित्य के प्रचारप्रसार के मुख्य कर्ता-धर्ता थे श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार, जिन्हें 'भाई जी' के नाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अमृत गीत तुम रचो कलानिधि
राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह दिनकर को आमतौर पर एक प्रखर राष्ट्रवादी और ओजस्वी कवि के रूप में माना जाता है, लेकिन वस्तुतः दिनकर का व्यक्तित्व बहुआयामी था। कवि के अतिरिक्त वह एक यशस्वी गद्यकार, निर्लिप्त समीक्षक, मौलिक चिन्तक, श्रेष्ठ दार्शनिक, सौम्य विचारक और सबसे बढ़कर बहुत ही संवेदनशील इन्सान भी थे।
सेतुबन्ध और श्रीरामेश्वर धाम की स्थापना
जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
वागड़ की स्थापत्य कला में नृत्य-गणपति
प्राचीन काल से ही भारतीय शिक्षा कर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है। भारतीय शिक्षा में कला की शिक्षा का अपना ही महत्त्व शुक्राचार्य के अनुसार ही कलाओं के भिन्न-भिन्न नाम ही नहीं, अपितु केवल लक्षण ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि क्रिया के पार्थक्य से ही कलाओं में भेद होता है। जैसे नृत्य कला को हाव-भाव आदि के साथ ‘गति नृत्य' भी कहा जाता है। नृत्य कला में करण, अंगहार, विभाव, भाव एवं रसों की अभिव्यक्ति की जाती है।
व्यावसायिक वास्तु के अनुसार शोरूम और दूकानें कैसी होनी चाहिए?
ऑफिस के एकदम कॉर्नर का दरवाजा हमेशा बिजनेस में नुकसान देता है। ऐसे ऑफिस में जो वर्कर काम करते हैं, तो उनको स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियाँ आती हैं।
श्रीगणेश नाम रहस्य
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प्रेम और भक्ति की अनन्य प्रतीक 'श्रीराधा'
कृष्ण चरित के प्रतिनिधि शास्त्र भागवत और महाभारत में राधा का उल्लेख नहीं होने के बावजूद वे लोकमानस में प्रेम और भक्ति की अनन्य प्रतीक के रूप में बसी हुई हैं। सन्त महात्माओं ने उन्हें कृष्णचरित का अभिन्न अंग माना है। उनकी मान्यता है कि प्रेम और भक्ति की जैसे कोई सीमा नहीं है, उसी तरह राधा का चरित, उनकी लीला और स्वरूप भी प्रेमाभक्ति का चरमोत्कर्ष है।
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राजस्थान के देवी-देवताओं में बाबा रामदेव का नाम काफी विख्यात है। इनके अनुयायी राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और सिन्ध (पाकिस्तान) आदि में बड़ी संख्या में हैं।
जन्मपत्रिका में चन्द्रमा और मनुष्य का भावनात्मक जुड़ाव
जिस प्रकार लग्न हमारा शरीर अर्थात् बाहरी व्यक्तित्व है, उसी प्रकार चन्द्रमा हमारा सूक्ष्म व्यक्तित्व है, जो किसी को भी दिखाई नहीं देता, लेकिन महसूस अवश्य होता है।