अनपढ़ होकर भी गीता समझी
एक बूढ़ा काका गंगा-किनारे गीता पढ़े जा रहा था। निमाई पंडित (गौरांग) वहाँ से पसार हुए। उन्होंने देखा कि वह काका 'ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...' कर रहा है, गीता का कोई श्लोक उच्चारित तो नहीं करता पर रोमांचित हो रहा है - शांत, मौन, आनंदित हो रहा है। वे पास गये और पीछे खड़े हो गये। देखा कि पन्ना तो नहीं उलटता लेकिन 'ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...' करते हए बड़े आनंद से पढ़ रहा है।
गीता पढ़ के रखी तो निमाई पंडित ने पूछा : ‘‘आप संस्कृत पढ़े हैं ?"
काका ने कहा : "संस्कृत का एक अक्षर भी नहीं जानता।”
"गीता तो पूरी संस्कृत में है फिर आप क्या पढ़ रहे थे ?"
"मैंने सुना है कि अर्जुन विषाद में डूब गया था । अर्जुन को भगवान ने उपदेश देकर उसका विषाद दूर किया । तो यह गीता विषादनाशिनी है, विषाद दूर करके अपने आत्मा में बिठानेवाली है। 'ऊँ हूँ... ऊँ ऊँ...' करता हूँ, मुझे आनंद आता है, बाकी इसमें क्या लिखा है यह मैं नहीं समझता हूँ।"
गौरांग ने कहा : ‘‘हम तो निमाई पंडित हुए, शास्त्रार्थ करके दूसरों को परास्त किया और कुछ विशेष बने परंतु गीता तो आपने ही पढ़ी है भैया ! हमने नहीं पढ़ी।"
ऐसे ही कई लोग भागवत, रामायण की कथा तो करते हैं पर भागवत को, रामायण को जानते कहाँ हैं ? चौपाइयाँ जानते हैं, श्लोक जानते हैं, उनके लक्ष्यार्थ को नहीं जानते।
'अब शांति पाने के लिए गीता पढ़ो'
घाटवाले बाबा के पास कोई प्रोफेसर आया, बोला : ‘‘महाराज ! आपका नाम सुनकर बहुत दूर से मैं आया हूँ। मुझे कुछ शांति मिले ऐसा कोई उपाय बताइये।"
बाबा ने सिर से पैर तक निहारा, बोले : तुम गीता "अच्छा, पढ़ना।"
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