उस दिन शाम होतेहोते किले की दिन भर की चहलकदमी कुछ कम हो चुकी थी. दिन भर की यात्रा के बाद सूरज भी छिप चुका था, जिस की वजह से अंधेरा अपने पैर पसारने लगा था.
सूरज छिपने से हवा सर्द हो गई थी. इस तरह के खुशनुमा मौसम में जैबुन्निसा पलंग पर बैठी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी. क्योंकि उस समय उस के कमरे में किसी के आने का खतरा नहीं था. अपने जज्बातों को कागज पर उतारते समय वह इस तरह खयालों में खो जाती कि उसे होश ही न रहता कि वह कहां है.
अभी उस ने 4 लाइनें ही लिखी थीं कि उसे लगा कि उस के कमरे की ओर कोई आ रहा है. पदचाप से तो यही लग रहा था कि आने वाला कोई उम्रदराज इंसान है. और वह उसी के कमरे की ओर बढ़ा चला आ रहा था. जैबुन्निसा को लगा कि कहीं अब्बा हुजूर तो नहीं आ रहे हैं. अब्बा हुजूर का खयाल आते ही वह सहम उठी. उस ने कलमदवात और कागज झट तकिए के नीचे छिपा दिए और पलंग पर आंखें मूंद कर इस तरह लेट गई, जैसे वह आराम कर रही हो.
औरंगजेब की सब से बड़ी संतान जैबुन्निसा को वैसे तो अपने अब्बा हुजूर और अम्मी दिलरस बानो बेगम का खूब प्यार मिलता था. उस का जन्म 15 फरवरी, 1638 को दौलताबाद में हुआ था. तब औरंगजेब बादशाह नहीं था. वह अपनी इस बेटी से बेइंतहा प्यार करता था. अपनी इस बेटी की वजह से उस ने कई लोगों को माफी दे दी थी. वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने औरंगजेब की मुखालफत की थी. इस से जैबुन्निसा के प्रभाव को समझा जा सकता है.
जैबुन्निसा हुस्न की मलिका ही नहीं थी, बल्कि बहुत कम उम्र में ही वह आलिमा और फाजिला भी हो गई थी. वह 7 साल की थी, तभी उसे कुरान याद हो गया था और वह हाफिजा बन गई थी. बेटी की इस उपलब्धि पर औरंगजेब ने खूब धूमधाम से जश्न तो मनाया ही था, उसे 30 हजार सोने के सिक्के इनाम में दिए थे.
यही नहीं, उस ने कुरान सिखाने वाली उस्ताद को भी 30 हजार सोने के सिक्के इनाम दिए थे. उस दिन सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर दिया गया था.
इस के बाद जैबुन्निसा ने फारस के विद्वान सईद अशरफ मंजधरानी से दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास व साहित्य की पढ़ाई की थी. अशरफ एक फारसी कवि थे. काफी कम उम्र में ही जैबुन्निसा ने अपने महल की लाइब्रेरी को खंगाल डाला था.
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