69 वर्षीय पवन कुमार वर्मा के बारे में राजनीति में बहुत ज्यादा दिलचस्पी रखने वाले लोग ही जानते हैं कि वे कई अहम किताबें लिख चुके हैं और 2014 में जनता दल यूनाइटेड की तरफ से राज्यसभा भी भेजे गए थे. इस के बाद उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जौइन कर ली थी लेकिन नामालूम वजहों के चलते उसे भी छोड़ दिया. हालांकि उन्होंने सामयिक मुद्दों पर लिखना और बोलना नहीं छोड़ा. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में उन्होंने अपने एक कौलम में लिखा था-
मीडिया प्लेटफौर्म्स को धमकाना, उन पर दबाव बनाना, उन्हें सजा देना, विज्ञापन न देना लोकतंत्र की सीमारेखा को लांघने वाली गतिविधि कहलाएगी. तो क्या सरकार ने यह सीमारेखा लांघी है. हां और न दोनों, यह तो कोई भी नहीं कह सकता कि भारत में स्वतंत्र मीडिया नहीं है लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि उस पर अंकुश लगाने की कोशिशें नहीं हुई हैं.
हाल के समय में कुछ परेशान कर देने वाले ट्रैंड्स उभरे हैं जिन की अनदेखी नहीं की जा सकती. पहला तो यही कि सरकार की किसी भी तरह की आलोचना को तुरंत राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध करार दिया जाता है.
पवन कुमार वर्मा की बातों को राजनेता या लेखक होने के अलावा इस नजरिए या पहलू से भी देखा जाना जरूरी है कि वे लंबे समय तक विदेश सेवा के अधिकारी, विदेश विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता और भूटान में भारत के राजदूत भी रहे हैं. उन की राजनीतिक आस्था चलायमान हो सकती है लेकिन मीडिया की स्वतंत्रता को ले कर उन की चिंता पर शक नहीं किया जा सकता.
जैक डोर्सी का छलका दर्द
पवन कुमार का यह कहना कि, मीडिया प्लेटफौर्म्स को धमकाया जाता है, 2 महीने बाद 14 जून को एक बड़े बवाल की शक्ल में सामने आया जब ट्विटर के संस्थापक रहे जैक डोर्सी ने भारत सरकार पर कई गंभीर आरोप लगाए. जैक डोर्सी ने यूट्यूब के एक शो 'ब्रेकिंग पौइंट्स विद क्रिस्टल एंड सागर' को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि किसान आंदोलन के दौरान भारत सरकार ने ट्विटर पर दबाव बनाया था. सरकार कुछ ऐसे ट्विटर अकाउंट्स बंद करने को कह रही थी जिन में किसान आंदोलन को ले कर केंद्र सरकार की आलोचना की जा रही थी. यह बात न मानने पर सरकार ने ट्विटर को बंद करने और कर्मचारियों के घरों पर छापे मारने की धमकी दी थी.
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