भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की बुनियाद 1935 में रखी गई और तब से बीते 90 साल में 25 गवर्नरों ने उसकी कमान संभालकर भारत के बैंकिंग नियमन तथा मौद्रिक नीति निर्माण का काम देखा है। इनमें से 14 प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, सात पेशेवर अर्थशास्त्री थे और तीन वित्तीय क्षेत्र से थे। आरबीआई कैडर का केवल एक अधिकारी गवर्नर बन सका है। आप प्रशासनिक सेवा के कुछ अधिकारियों यानी अफसरशाहों के नाम लेकर कह सकते हैं कि वे प्रशिक्षित अर्थशास्त्री भी थे। परंतु हालिया बहसों में इस तथ्य को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है कि रिजर्व बैंक गवर्नर के पद पर सिविल सेवा के अधिकारियों की प्रमुखता रही है और पिछले कुछ समय में सरकारों ने इस पद के लिए अफसरशाहों को ही उपयुक्त माना है।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने अपने 17 साल के कार्यकाल में चार आरबीआई गवर्नर नियुक्त किए और वे सभी अफसरशाह थे। यह दलील बचकानी होगी कि नेहरू ने अफसरशाहों को इसलिए चुना क्योंकि उस समय प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे ही नहीं। इंदिरा गांधी की सरकार में भी अफसरशाहों को प्राथमिकता दी गई और ऐसे तीन अधिकारियों को केंद्रीय बैंक का प्रमुख बनाया गया। इतना ही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने भी 1935 से 1947 तक 12 साल में जो तीन गवर्नर बनाए, उनमें दो अफसरशाह ही थे। जिन सरकारों ने अफसरशाहों को आरबीआई गवर्नर नहीं बनाया वे थीं मोरारजी देसाई की सरकार, इंदिरा गांधी का दूसरा कार्यकाल और पी वी नरसिंह राव की सरकार।
इसी सोमवार को रिजर्व बैंक के नए गवर्नर के रूप में संजय मल्होत्रा की नियुक्ति पर सरकार ने मोहर लगा दी। वह इसके 26वें प्रमुख होंगे और इस पद पर बैठने वाले 15वें अफसरशाह भी होंगे। नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में आरबीआई गवर्नरों की नियुक्ति की बात करें तो अब पलड़ा अफसरशाहों के पक्ष में झुक गया है। 2014 से अब तक उसने दो अफसरशाहों और एक अर्थशास्त्री को इस पद पर नियुक्त किया।
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