‘अगर कोई कौआ मंदिर के शिखर पर बैठ जाए तो क्या वह गरुड़ बन जाएगा?’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले गुरुवार को पुणे में संजीवन व्याख्यानमाला में अपने भाषण में सवाल किया। उन्होंने भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने की संघ की आकांक्षा भी दोहराई। पिछले कुछ समय से नरेंद्र मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इसका जिक्र बंद कर दिया है। इसके बजाय विदेश मंत्री एस जयशंकर अब विश्वमित्र बनने की बात कर रहे हैं।
इस तरह के बयान जुमले जैसे लग सकते हैं मगर ऐसा है नहीं। यह देश में सांप्रदायिक संबंधों पर जारी विमर्श की दिशा बदलने की कोशिश का हिस्सा लग रहा है। साथ ही यह भाजपा और उसके समर्थकों – विशेष तौर पर हिंदी पट्टी के लोगों – के लिए उपदेश भी है क्योंकि उसी इलाके में मंदिर के ऊपर मस्जिद बनाने के दावों की बाढ़ आती जा रही है। पहले संभल में ऐसा हुआ और अब अजमेर शरीफ की भी बारी आ गई है।
चूंकि अब सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे दावों पर रोक लगा दी है और उपासना स्थल अधिनियम 1991 को दी गई पुरानी चुनौती पर सुनवाई कर रहा है तो भागवत के बयान को अदालत के लिए इशारा भी माना जा सकता है।
जब स्वयं सरसंघचालक ही ऐसी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए कह रहे हों तो आप भाजपा के समर्थक हों या आलोचक हों, आपको उनकी बात ध्यान से सुननी चाहिए। अपने दोटूक भाषण में उन्होंने हिंदुओं का नेता बनने की ख्वाहिश रखने वालों से कहा कि कुछ लोग सोचते हैं कि वे ऐसे (मंदिर-मस्जिद जैसे) मुद्दे उठाकर हिंदुओं नेता बन सकते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई कौआ उम्मीद करे कि मंदिर के शिखर पर बैठकर वह गरुड़ बन जाएगा।
विश्वगुरु बनने की आकांक्षा भी इसी उरपदेश में निहित है। भारत लड़ाई जीतकर, एक जैसी भाषा, ,संस्कृति या आस्था होने के कारण अथवा साझा रणनीतिक हितों के कारण राष्ट्र नहीं बना। भारत अपनी अनूठी प्राचीन विचारधारा और समावेशी संस्कृति के कारण राष्ट्र बना। हमने हर किसी को अपना माना। एकता का अर्थ एकरूपता कायम करना या विविधता को खत्म करना नहीं है। ‘हम अनेकता में एकता की बात करते रहे हैं अब हमें यह स्वीकारना होगा कि हमारी विविधता ही हमारी एकता है।’
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