महिलाएं आज देश के बड़ेबड़े पदों पर कार्यरत हैं. भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अलावा सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी जैसी महिलाओं ने देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई. आज के समय में राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी पहले से कई गुना बढ़ गई है. कोई महिला किसी बड़े राजनीतिक दल की राष्ट्रीय अध्यक्षता कर रही है तो कोई महिला बतौर राज्य की मुख्यमंत्री प्रदेश की बागडोर संभाल रही है. बढ़ती सियासी चेतना का गवाह महिलाओं का बढ़ता मतदान प्रतिशत भी है. साल दर साल वे पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं. मगर अफसोस सदन में उन का प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ रहा.
वैसे महिलाएं पुरुषों की तरह ही अच्छी नेता बनने में सक्षम हैं, वे समान रूप से योग्य भी हैं लेकिन उन के रास्ते में बाधाएं बनी रहती हैं. महिलाओं और नेतृत्व पर एक नए प्यू रिसर्च सैंटर सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश लोगों को बुद्धिमत्ता और क्षमता जैसे प्रमुख नेतृत्व गुणों पर महिलाएं पुरुषों से कम नहीं लगती हैं. कई गुणों में वे पुरुषों की तुलना में अधिक मजबूत हैं. तो फिर सरकार और व्यवसाय के शीर्ष पर महिलाओं की कमी क्यों है?
कहीं न कहीं परिवार और मातृत्व से संबंधित जिम्मेदारियां महिलाओं को अपने कैरियर में आगे बढ़ने और प्रतिस्पर्धा करने में चुनौती बन जाती हैं. इस के बावजूद बहुत सी महिलाएं राजनीति में आगे आ रही हैं, खुद के लिए राह बना रही हैं और नए कीर्तिमान गढ़ रही हैं. इन सब से महिलाओं को कम समझने वाले समाज का नजरिया भी बदला है.
मगर सवाल है कि क्या ये महिला नेता आधी आबादी को उन का पूरा हक दे पाई हैं? क्या महिला नेता स्पष्ट रूप से बाधाओं को तोड़ रही हैं और क्या ये अपने देश में दूसरी भी महिलाओं को साथ ले कर आ रही हैं? एक सर्वे में जब मातापिता से उनके बच्चों की शिक्षा, आयु, पहले बच्चे की चाहत, नौकरी आदि के बारे में पूछा गया तो परिजनों की बेटों को ले कर बड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं लेकिन जिस गांव की कोई महिला नेता थी वहां के परिजनों की अपने बेटे और बेटी के बीच महत्त्वाकांक्षा का अंतर केवल 25 फीसदी था. हालांकि जहां महिला नेता थीं वहां लड़कों को ले कर महत्त्वाकांक्षा में कोई गिरावट नहीं थी.
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