विश्व में शायद ही कोई ऐसा सैन्य विद्रोह हुआ हो जिसमें विद्रोही सैनिकों द्वारा हथियार उठाने के बजाय हथियार गिरा दिये हों। ऐसी मिसाल गढ़वाली सैनिकों ने पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को पेश की थी। यही नहीं, इस काण्ड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में इन कट्टर हिन्दू विद्रोही सैनिकों ने निहत्थे पठानों पर गोलियां बरसाने के बजाय गोरों के सैनिकों के आगे अपने सीने तान लिये थे। विडम्बना देखिये कि बहादुरी के साथ ही राष्ट्र प्रेम और साम्प्रदायिक सौहार्द की ऐसी मिसाल पेश करने वाले वे सभी गढ़वाली सैनिक गुमनामी में खो गये। जबकि राजनीतिक नेताओं की यादों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सारे ही देश में नामकरणों की होड़ लगी हुयी है। विद्रोह के नायक चन्द्रसिंह 'गढ़वाली' को चुनावी मजबूरी के चलते यदाकदा याद तो किया जाता है, लेकिन उनके वंशजों को ऐसी दो गज जमीन आज नसीब नहीं हो पायी जिसे वे अपना कह सकें और सिर ढकने के लिए एक स्थाई आशियाना बना सकें। विद्रोह के कारण 'गढ़वाली' की जमीन जायदाद जब्त हो गयी थी। चन्द्रसिंह के उन 32 गुमनाम देशभक्त सैनिकों का तो भारत ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड में भी कोई नामलेवा नहीं है।
देश प्रेम, सौहार्द और बलिदान की मिसाल पेश की विद्रोही सैनिकों ने : 1 अक्टूबर को पेशावर काण्ड के हीरो चन्द्रसिंह 'गढ़वाली' की पुण्यतिथि है। इसी दिन 1979 को दिल्ली के एक अस्पताल में वीर चन्द्रसिंह 'गढ़वाली' का निधन हो गया था। इस अवसर पर चन्द्रसिंह 'गढ़वाली' को तो याद किया ही जाना चाहिये लेकिन उनके साथ ही 2/18 रॉयल गढ़वाल रायफल्स के उन बहादुर सैनिकों को भी अवश्य ही नमन किया जाना चाहिये, जिन्होंने अपने जीवन और नौकरी की परवाह न कर चन्द्रसिंह के आदेश पर 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में निहत्थे स्वाधीनता प्रेमी पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। इस घटना ने सारे देश में स्वाधीनता आन्दोलन में एक नया उन्माद पैदा किया।
この記事は DASTAKTIMES の January 2024 版に掲載されています。
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सत्य का ज्ञान ही सब दुःखों से दिला सकता है मुक्ति
भले ही कोई किसी जाति, पन्थ, राष्ट्र अथवा विशेष प्रवृत्तियों वाला व्यक्ति हो और बदले में धन अथवा अन्य किसी भी रूप में किसी प्रतिफल की आकांक्षा न करते हुए मानवमात्र की सेवा ही उसके जीवन का उद्देश्य हो, यही यथार्थ सेवा है।
आज का स्त्री विमर्श बंदर के हाथ में उस्तरा
चर्चित स्त्रीवादी लेखिका गीताश्री ने अपने लेख की शुरुआत में आलोचक व लेखक अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' का नाम लिए बगैर उनकी एक टिप्पणी के आधार पर उनके मर्दवादी नज़रिए पर लानत - मलानत भेजी। एक लेखक की टिप्पणी पर एक नामचीन लेखिका इतनी भड़क जाएं कि अपनी बात शुरू करने के लिए उन्हें संदर्भित करना पड़े तो जाहिर है लेखक की टिप्पणी बेमानी नहीं रही होगी । उसने कोई ऐसी रग छुई है जहां किसी कोने में दर्द छुपा है। बीते 20 साल के स्त्री विमर्श लेखन का एक समानांतर पक्ष जानने के लिए 'दस्तक टाइम्स' ने चमनजी से आग्रह किया कि जो 'सदविचार' उन्होंने किसी साहित्यिक जलसे में दिया था, उसे वह हमारे मंच पर विस्तार दें ताकि मौजूदा दौर के स्त्री विमर्श की एक सटीक तस्वीर पाठकों के सामने आए। तो मुलाहिजा फरमाइये मि. चमन का यह आलेख |
देह की आजादी नहीं स्त्री विमर्श
देह की आजादी नहीं स्त्री विमर्श
बिहार के लिए क्यों जरूरी हो गए नीतीश कुमार
बिहार की राजनीति पिछले 25 वर्षों में नीतीश कुमार और लालू यादव एंड संस के इर्द-गिर्द घूम रही है। जंगलराज के दौर के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता के केन्द्र बिन्दु बने तो उनकी छवि सुशासन बाबू की बनी और बिहार तरक्की के पैमाने पर देश में तेजी से बढ़ते राज्यों में से एक हो गया। नई सदी में बिहार का सियासी सफरनामा पेश कर रहे हैं पटना के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप कुमार।
हेमंत ने दिया राजनीति को नया मुहावरा
झारखंड ने राजनीति में स्थापना काल से ही कई सियासी उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रदेश के लोगों ने 24 साल के राजनीतिक कालखंड में कई मुख्यमंत्रियों को देखा है। कई बार तो बॉलीवुड 'थ्रिलर' की तरह सूबे में नेतृत्व परिवर्तन हुए हैं। झारखंड के चौथी बार सीएम बनने वाले हेमंत सोरेन ने स्थायित्व का नया मुहावरा गढ़ के सूबे की राजनीति को एक नई दिशा दी। नई सदी में झारखंड की राजनीति में आए उतार- चढ़ाव का आकलन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार उदय कुमार चौहान।
सियासत के धूमकेतु बन कर उभरे धामी
ऐसे में उत्तराखंड के राजनीतिक क्षितिज पर पुष्कर सिंह धामी एक धूमकेतु बन कर उभरे। नई युवा दृष्टि, नया विज़न और नई इच्छा शक्ति से उत्तराखंड तरक्की की नई डगर पर चल निकला है। उत्तराखंड भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकला है, समान नागरिक संहिता, सख्त नकलविरोधी कानून देशभर में एक नज़ीर बन गए। धामी की कम बोलने और ज्यादा करने की अनूठी कार्यशैली ने उत्तराखंड के जनमानस को यकीन दिला दिया है कि उत्तराखंड की बागडोर सही और सशक्त हाथों में सौंपी गई है। अब इस यकीन को बनाए रखना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है।मौजूदा सदी में उत्तराखंड की 24 साल की विकास यात्रा का ब्योरा दे रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत।
फिर जुटा महाकुम्भ
7वीं सदी के राजा हर्षवर्धन की तर्ज पर छह साल पहले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मेला प्राधिकरण का गठन कर ऐतिहासिक कुंभ मेले को संस्थागत रूप दिया था। 2019 के कामयाब अर्धकुंभ ने प्रयागराज के आसपास की तमाम लोकसभा सीटें बीजेपी की झोली में डाल दी थीं। और इस कामयाबी का सेहरा योगी के सिर बंधा। तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संगम के सफाईकर्मियों के पांव पखार कर आशीर्वाद लेकर सबको चौंका दिया था। इस बार महाकुंभ है, करोड़ों श्रद्धालुओं का स्वागत करने के लिए योगी की टीम तैयार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक महीने पहले ही तैयारियों का जायजा ले चुके हैं। इस बार का मेला कई मायनों में अनूठा होगा। पढ़िए प्रयागराज से जाने-माने पत्रकार देवेन्द्र शुक्ल की यह रिपोर्ट।
खेती किसानी अब महंगा सौदा
नई सदी में कृषि के क्षेत्र में भारत ने कई झंडे गाड़े। दुनिया में दुग्ध उत्पादन में हम पहले और फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरे स्थान पर आ चुके हैं। साल 1950 में खाद्यान्न पैदावार पांच करोड़ टन थी और आज 50 करोड़ टन है लेकिन विडंबना देखिए, देश की आधी आबादी खेती-किसानी में लगी है, बावजूद इसके कृषि का जीडीपी में योगदान केवल 17 फीसदी है। यानी एक बड़ी आबादी खेती के नाम पर पल रही है। जिसका देश के विकास में कोई सीधा योगदान नहीं है। यह वे लाखों किसान और उनके आश्रित हैं जो खेती छोड़ना चाहते हैं क्योंकि यह एक महंगा सौदा हो चुकी है। भारत में खेती-किसानी के हाल का ब्योरा पेश कर रहे हैं कृषि विशेषज्ञ अखिलेश मिश्र।
बदल गई दुनिया
पिछले बीस साल में दुनिया 360 डिग्री बदल गई। नई अर्थव्यवस्थाएं विकसित हुईं। भूराजनीतिक संघर्ष बढ़े और ग्लोबल पावर डायनेमिक्स में फोकस आतंकवाद से क्लाइमेट एक्शन की ओर शिफ्ट होता दिखा। 21वीं सदी की दुनिया का हाल बता रहे हैं रणनीतिक स्तंभकार और वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक के.एस.तोमर।
कारोबार को लगे पंख
21वीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त रफ्तार पकड़ी। 2010 में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था ने 1 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा हासिल किया। इस मुकाम पर पहुंचने में आज़ाद भारत को 63 साल का सफर तय करना पड़ा, लेकिन ट्रिगर दब चुका था। अगले सात साल यानी 2017 तक यह दो ट्रिलियन डॉलर पर पहुंच गई और फिर तीन साल में यानी 2020 में इसने तीन ट्रिलियन डॉलर का निशान भी पार कर लिया | अर्थव्यवस्था के हैरतअंगेज उतार-चढ़ाव और इस रफ़्तार की दिलचस्प कहानी बता रहे हैं आर्थिक मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ आलोक जोशी ।