इस साल की तेज गर्मी में भी मनती सारथी की दिनचर्या कुछ खास बदली नहीं है. अपनी जिंदगी का छठवां दशक जी रहीं मनती कई साल से सूरज ढलने के कुछ देर पहले अपनी करियों के लिए आसपास के पेड़-पौधों से पत्तियां तोड़ती हैं. वे आज भी यही कर रही हैं लेकिन बीते साल जैसी चुस्ती-फुर्ती के साथ नहीं. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 350 किलोमीटर दूर सरगुजा जिले के बधियाचुवा गांव की मनती काम तो छोड़िए बल्कि बात करते-करते भी खांसने लगती हैं.
दरअसल, उन्हें टीबी है और इस बीमारी का पता सिर्फ तीन महीने पहले ही चला है. घर से खाली दवाओं के रैपर निकालकर दिखाते हुए मनती बताती हैं कि उन्हें जिला मुख्यालय अंबिकापुर के टीबी सेंटर से दो माह की दवा मिली थी. दवाएं खत्म होने पर वे फिर दवा लेने गईं तो दवाएं कम होने का हवाला देते हुए 18 दिनों की दवा दी गई. वे जब तीसरी बार दवा लेने गईं तो उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि दवाएं खत्म हो चुकी थीं. वे अपनी मजबूरी बताते हुए कहती है, "हमारे पास कोई साधन नहीं है कि वहां रोज-रोज जाकर पता लगा पाएं कि दवा आ गई है या नहीं, सो अभी दवा छोड़ दी है." टीबी की जो दवाएं मनती को छह माह तक लगातार खानी थीं, उन्हें सिर्फ दो महीने बाद छोड़ देनी पड़ीं. अब उन्हें अपनी बीमारी से उबरने के लिए फिर से छह महीने का कोर्स शुरू करना पड़ेगा. टीबी की बीमारी के इलाज में लगातार छह महीने बिना चूके नियमित दवाएं खानी होती हैं. अगर यह क्रम टूटता है तो मरीज को नए सिरे से पूरा कोर्स शुरू करना पड़ता है.
इसी गांव में रहने वाली लालो स्वास्थ्य विभाग के जमीनी अमले में मितानीन का काम करती हैं. मितानीन छत्तीसगढ़ी शब्द है, जिसका मतलब है 'सखी'. इनका काम स्वास्थ्य विभाग की योजनाओं को ग्रामीण स्तर तक पहुंचाना होता है. लालो के पति शंकर राम चौधरी को इसी साल जनवरी में टीबी होने की बात पता चली. तब से उनकी दवाएं चल रही हैं. हालांकि वे भी मनती की तरह करीब दो माह तक दवाइयां खाने के बाद जब दवा लेने अंबिकापुर टीबी सेंटर गए तो पता चला दवाइयां खत्म हो गई हैं. अब शंकर को भी टीबी की दवाओं का छह महीने का कोर्स फिर शुरू करना होगा.
この記事は India Today Hindi の June 12, 2024 版に掲載されています。
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