पैसा पिस्तौल है, उसका घोड़ा कब दबाना है, यह जानना राजनीति है।" मारियो पूजो के प्रसिद्ध उपन्यास गॉडफादर पर बनी फिल्मत्रयी का यह महान डायलॉग डॉन लुकेसी ने 1990 में कहा था। क्या ही इत्तेफाक है कि बिलकुल उसी साल भारत के माथे पर पूंजी की पिस्तौल एकदम तन चुकी थी, बस गोली चलने की देरी थी। यानी, बस राज्यादेश का इंतजार था और ठांय ! आइएमएफ के कर्ज तले नई आर्थिक नीति 1989 में भी आ सकती थी, लेकिन राजनीति ने उसे दो साल रोके रखा। 1991 की जुलाई में जब पूंजी की गोली चली, तो हिंदुस्तान के समाज में पसरा बरसों का सौहार्दपूर्ण सन्नाटा एक झटके में शहीद हो गया।
तब से लेकर आज तक, हमने कभी नहीं पूछा कि नई आर्थिक नीतियों की बंदूक के छर्रे किस-किस को लगे। फिल्म में भी डॉन से विन्सेन्ट ने कभी नहीं पूछा था कि पूंजी की गोली चलेगी, तो लगेगी किसको । राजनीति और पूंजी के इस खूनी खेल में शायद मरने वाले की परवाह न की जाती हो, लेकिन विडंबना देखिए कि आज जब हम बदली हुई दुनिया में इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई की मुंडेर पर खड़े होकर एक अगाध गर्त में झांक रहे हैं, तो हमें यहां तक पहुंचाने वाले को चौतरफा श्रद्धा के फूल अर्पित किए जा रहे हैं।
बीते दिसंबर के आखिरी हफ्ते में दिवंगत हुए डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लाई गई नई आर्थिक निति ने भारत के समाज, संस्कृति और मनुष्य को जिस कदर बदला वह अभूतपूर्व तो है ही, उदारीकरण के पैरोकारों के आकलन के हिसाब से अप्रत्याशित भी है। भारत के समाज में जितना दो सौ साल में नहीं बदला था, पूंजी और राजनीति की जुगलबंदी ने महज ढाई दशक में उससे कहीं ज्यादा बदल डाला। इस बदलाव की जड़ें जिन लोगों और ताकतों तक जाती हैं, वे खुद आज अपनी बनाई दुनिया को पहचान पा रहे होंगे, इसमें शक है। उनके बरक्स जिन ताकतों ने पूंजी की राजनीति के खिलाफ दुनिया को मनुष्यता के हक में बदलने के उद्यम किए वे भी बदल चुकी दुनिया को देखकर हतप्रभ हैं और पार्श्व में जा चुके हैं।
この記事は Outlook Hindi の January 20, 2025 版に掲載されています。
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