महेश कुमारजी को अपनी पत्नी के देहांत के बाद अपने बेटे बासु के साथ शहर आना पड़ा क्योंकि पत्नी के जाने के बाद वे एकदम अकेले हो गए थे.
अब बेटा ही था, जिस के साथ वे रह सकते थे और उन की इस उम्र में सही से देखभाल हो सकती थी. बासु उन्हें अपने साथ बेंगलुरु ले आया. घर आ कर महेशजी को उन का कमरा और बालकनी दिखाई व कहा, "पापा, आप कुछ समय यहां बालकनी में सुकून के साथ बैठ सकते हैं, अखबार पढ़ सकते हैं, आप का मन लगा रहेगा और कमरे के दरवाजे के बाहर देखो पापा, मन तो आप को लगाना ही पड़ेगा."
महेशजी भी अपना मन लगाने की पूरी कोशिश करते, लेकिन बुढ़ापे का एकाकीपन उन्हें खाए जाता था. आसपास कोई बोलने वाला नहीं था. बेटा और बहू अपने काम में लगे रहते, कभीकभार पोते के साथ मन बहला लिया करते. लेकिन वह भी अकसर स्कूल की पढ़ाई में लगा रहता था.
महेशजी की बालकनी के सामने वाले फ्लैट में भी शायद कोई नहीं रहता था, क्योंकि अकसर वह बंद ही रहता.
कुछ समय बाद उन के सामने वाले फ्लैट में कोई रहने आ गया. बालकनी में एक सभ्य व संभ्रांत महिला दिखाई दी, जो लगभग उन्हीं की उम्र की थी.
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