90 के दशक की बात है. लखनऊ के एक स्वयंभू पत्रकार थे. लोगबाग उन्हें पंडितजी कह कर पुकारते थे खुद ही प्रकाशक और संपादक भी थे. एक पॉलिटिकल मैगजीन और एक दैनिक अखबार निकालते थे. एक पूर्व मुख्यमंत्री के करीबी रह चुके थे. वे उन की अंदरूनी बातों की जानकारी रखते थे. बाद में जब उन से नाराज हुए तो उन के खिलाफ खबरें छापने लगे. मुंह बंद करवाने के लिए मुख्यमंत्रीजी ने काफी पैसा पहुंचाया लेकिन वे कुछ दिन चुप रहते, फिर शुरू हो जाते.
इस तरह पंडितजी ने काफी पैसा बनाया. बाद में बड़ेबड़े नौकरशाहों से दोस्ती गांठ ली. उन की कृपा से अखबार और पत्रिका को लाखों रुपए के सरकारी विज्ञापन धड़ल्ले से मिलने लगे. एक प्रिंटिंग प्रैस खड़ी कर ली. कुछ खोजी टाइप के रिपोर्टर्स की टीम बना ली, जो रिपोर्टिंग कम ब्लैकमेलिंग में ज्यादा उस्ताद थे. इस अधिकारी की गुप्त जानकारी उस को और उस अधिकारी की गुप्त जानकारी उस को पहुंचा कर ये लोग अच्छा पैसा बनाने लगे.
पंडितजी की पत्नी और बच्चों को उन के अवैध कामों की पूरी जानकारी थी, मगर किसी ने उन्हें ऐसा करने से टोका नहीं. पत्नी खुश थी कि अच्छा पहननेओढ़ने को मिल रहा है. नएनए डिजाइन के जेवर खरीदती थी. लड़के को बालिग होते ही लग्जरी कार मिल गई थी और बेटी भी जी खोल कर अपनी सहेलियों पर पैसे उड़ाती थी.
पंडितजी की अवैध कमाई पर पलने वाले उन के दोनों बच्चों ने पैसे का मूल्य कभी नहीं समझा. न पढ़ाई पूरी की और न ही कोई नौकरी की मेहनत करना क्या होता है, यह उन्होंने जाना ही नहीं. वे सिर्फ नौकरों पर हुक्म चलाना ही सीख पाए. लड़की जवान होते ही मौडल बनने के चक्कर में मुंबई चली गई. 3 वर्षों बाद लुटीपिटी, डिप्रैशन का शिकार हो कर लौटी.
लड़के को कम उम्र में ही शराब का चस्का लग गया. पंडितजी के मरने के बाद वह प्रैस का मालिक बन गया. ज्यादा पढ़ालिखा न होने के कारण पंडितजी के धूर्त्त रिपोर्टर्स की टीम ने उस को नशे की गर्त में डुबो दिया. वह रातदिन नशे में रहने लगा. 2 बार शादी की और दोनों बार तलाक हो गया. घरेलू हिंसा का मामला उस पर अलग दर्ज हो गया. एक दिन शराब के नशे में तेज गाड़ी चलाते हुए उस का ट्रक से ऐक्सिडेंट हुआ और अस्पताल पहुंचने से पहले ही उस की मृत्यु हो गई.
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