एक समय था जब कढ़ाईबुनाई महिलाओं के व्यक्तित्व का एक जरूरी हिस्सा हुआ करती थी. महिलाएं अपना चूल्हाचौका समेटने के बाद दोपहर में कुनकुनी धूप का सेवन करते हुए स्वैटर बुनने बैठ जाती थीं. गपशप तो होती ही थी साथ ही एकदूसरे से डिजाइन का आदानप्रदान भी हो जाता था. घर के हर सदस्य के लिए स्वैटर बुनना हर महिला का प्रिय शगल होता था. उस समय न टीवी था, न व्हाट्सऐप, न इंटरनैट और न ही फेसबुक.
टैक्नोलौजी का जितना असर समाज के अन्य पक्षों पर पड़ा है उतना ही निटिंग पर भी पड़ा है. लेकिन उन सब से अनभिज्ञ आज की युवा पीढ़ी ने निटिंग जैसी कला को गुडबाय कह दिया है. 'कौन पहनता है हाथ से बुने स्वैटर' या 'यह ओल्ड फैशन ऐक्टिविटी है' जैसे जुमलों ने महिलाओं को हाथ से स्वैटर बनाने की कला को दूर कर दिया है. पर इन सब जुमलों के बावजूद मैं ने निटिंग के प्रति अपना दीवानापन नहीं छोड़ा. उस दुनिया से छिप कर बुनती रही जो इस कला को ओल्ड फैशन मानती है. कभी चारदीवारी के अंदर तो कभी रात के साए में स्वैटरों के नित नई डिजाइनें टटोलती रही.
विदेशों में क्रेज
आश्चर्य तो तब हुआ जब मैं ने जरमनी यात्रा के दौरान अपनी हवाई यात्रा में एक जरमन महिला को मोव कलर के दस्ताने बुनते देखा और फिर वहां मैट्रो ट्रेन में कुछ महिलाओं को निटिंग करते देखा. वहां एक स्टोर में जाने का मौका मिला तो पाया कि लोग किस कदर हैंडमेड स्वैटर पहनने के इच्छुक हैं.
この記事は Grihshobha - Hindi の December Second 2022 版に掲載されています。
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