पुरातन सोच के शिकंजे में महिलाएं
Grihshobha - Hindi|August Second 2024
क्यों आज भी हमारा यह समाज महिलाओं के लिए दोहरी नीति अपनाता रहा है, नैतिकता के नाम पर महिलाओं की बलि चढ़ाता रहा है.....
गायत्री ठाकुर
पुरातन सोच के शिकंजे में महिलाएं

युग चाहे कोई भी हो महिलाएं स्वयं को द्वापर युग में ही खड़ा पाती हैं, जबकि द्वापर युग से ले कर वर्तमान समय तक का एक लंबा फासला मानव सभ्यता ने तय किया है. इस लंबे समय में मानव सभ्यता ने काफी प्रगति की है, अनेक वैज्ञानिक तकनीकों का इजाद किया है, फिर भी महिलाओं को देखने का, उन्हें आंकने का समाज का नजरिया पुरातन सोच और मानसिकता के दायरे में ही सीमित है. समाज महिलाओं को अपनी कुंठित विचारधारा की पकड़ से मुक्त नहीं होने देना चाहता.

उन की आजादी पर अंकुश लगाने की उस की दलील इसी पुरातन सोच के इर्दगिर्द मंडराती रही है, जबकि आधुनिक समाज में महिलाएं स्वतंत्र हैं. उन्हें स्वतंत्रता के वे सारे अधिकार प्राप्त हैं जो हर इंसान को जन्म लेने के साथ प्राप्त होते हैं. विवाह संस्था को बचाने के नाम पर उन की प्रकृतिप्रदत आजादी को कैसे छीना जा सकता है? बच्चे पैदा करने के लिए उन्हें विवाह के बंधन में बांधा जाना अनिवार्य कैसे बताया जा सकता है?

महाभारतरामायण की कथाओं को सच मान कर उसे अपना आदर्श बताने वाला यह समाज क्या यह बता सकता है कि जहां मात्र देवताओं का आवाहन कर पुत्रों को जन्म देने की परंपरा रही है, कुंती अपनी कुंआरी अवस्था में सूर्य देव का आवाहन कर करण को जन्म दे सकती है, जब धृतराष्ट्र की बेवफाई से आहत हो कर गांधारी, वेदव्यास से पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त कर 2 वर्ष तक गर्भधारण के पश्चात भी संतान नहीं प्राप्त करने पर क्रोधवश अपने गर्भ पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिस से उस का गर्भ गिर गया.

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