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मनुष्य का परम धर्म
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होली का दिन है। लड्डू के भक्त और रसगुल्ले के प्रेमी पंडित मोटेराम "शास्त्री अपने आंगन में एक टूटी खाट पर सिर झुकाये, चिंता और शोक की मूर्ति बने बैठे हैं। उनकी सहधर्मिणी उनके निकट बैठी हुई उनकी ओर सच्ची सहवेदना की दृष्टि से ताक रही है और अपनी मृदुवाणी से पति की चिंताग्नि को शांत करने की चेष्टा कर रही है।
- मुंशी प्रेमचंद
मनुष्य का परम धर्म

पंडितजी बहुत देर तक चिंता में डूबे रहने के पश्चात् उदासीन भाव से बोले – “नसीबा ससुरा ना जाने कहां जाकर सो गया। होली के दिन भी न जागा !"

पंडिताइन - " दिन ही बुरे आ गये हैं। इहां तो जौन ते तुम्हारा हुकुम पावा ओही घड़ी ते सांझ - सबेरे दोनों जून सूरजनरायन से ही बरदान मांगा करिहैं कि कहूं से बुलौवा आवै, सैकड़न दिया तुलसी माई का चढ़ावा, मुदा सब सोय गये। गाढ़ परे कोऊ काम नाहीं आवत है।"

मोटेराम "कुछ नहीं, ये देवी-देवता सब नाम के हैं। हमारे बखत पर काम आवें तब हम जानें कि कोई देवी-देवता। सेंत - मेंत में खानेवाले तो बहुत हैं।" मालपुआ और हलुवा 

पंडिताइन - "का सहर-भर मां अब कोई भलमनई नाहीं रहा ? सब मरि गये?" 

मोटेराम - “सब मर गये, बल्कि सड़ गये। दस-पांच हैं तो साल भर में दो-एक बार जीते हैं। वह भी बहुत हिम्मत की तो रुपये की तीन सेर मिठाई खिला दी। मेरा बस चलता तो इन सबों को सीधे कालेपानी भिजवा देता, यह सब इसी अरियासमाज की करनी है।"

पंडिताइन- "तुमहूं तो घर मां बैठे रहत हो। अब ई जमाने में कोई ऐसन दानी नाहीं है कि घर बैठे नेवता भेज देय । कभू कभू जुबान लड़ा दिया करौ।"

मोटेराम - "तुम कैसे जानती हो कि मैंने जबान नहीं लड़ाई ? ऐसा कौन रईस इस शहर में है, जिसके यहां जाकर मैंने आशीर्वाद न दिया हो; मगर कौन ससुरा सुनता है, सब अपने-अपने रंग में मस्त हैं।"

इतने में पंडित चिन्तामणिजी ने पदार्पण किया। यह पंडित मोटेरामजी के परम मित्र थे। हां, अवस्था कुछ कम थी और उसी के अनुकूल उनकी तोंद भी कुछ उतनी प्रतिभाशाली न थी। 

मोटेराम - "कहो मित्र, क्या समाचार लाये? है कहीं डौल?"

चिंतामणि - " डौल नहीं, अपना सिर है ! अब वह नसीब ही नहीं रहा।"

मोटेराम - "घर ही से आ रहे हो?"

चिंतामणि – "भाई, हम तो साधू हो जायेंगे। जब इस जीवन में कोई सुख ही नहीं रहा तो जीकर क्या करेंगे ? अब बताओ कि आज के दिन अब उत्तम पदार्थ न मिले तो कोई क्योंकर जिये।"

मोटेराम - "हां भाई, बात तो यथार्थ कहते हो।" चिंतामणि – “तो अब तुम्हारा किया कुछ न होगा? साफ-साफ कहो, हम संन्यास ले लें।" 

この記事は Naye Pallav の Naye Pallav 19 版に掲載されています。

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