घर के अंदर कदम रखते ही सुरभि को पूरे घर में एक मीठीसी महक महसूस हुई। वह खुशबू का पीछा करते हुए रसोई में जा पहुंची। वहां उसकी नानी मां मोर्चा संभाले हुए थीं। पकवान की खुशबू और नानी की कसी कमर देख उसे समझते देर नहीं लगी कि वह अपनी सिग्नेचर डिश यानी 'नारियल की बर्फी' बनाने में जुटी हैं। सुरभि को उनके हाथ की बर्फी सबसे ज्यादा पसंद थी। यहां तक कि अपनी मां के हाथ की बर्फी भी उसे उतनी लजीज नहीं लगती थी। जाने नानी मां क्या जादू कर देती थीं बर्फी में !
दरअसल यह हममें से अधिकतर के साथ होता है। जब हम बहुत प्रयास करने के बाद भी हुबहू वैसा स्वाद नहीं ला पाते, जैसा हमने कहीं खाया होता है। इसके पीछे क्या कारण है, इसका बिल्कुल सही उत्तर बता पाना मुश्किल है। यह कोई खास सामग्री, पकाने का तरीका या फिर उस डिश के ऊपर दिया गया समय हो सकता है, क्योंकि यहां जितने लोग हैं, उतने मत हैं और उतनी वैरायटी है। साथ ही उतने तरीके भी हैं काम करने के।
वैसे भी एक प्रचलित कहावत है- 'कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी', अर्थात हमारे देश में हर एक कोस की दूरी पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस पर भाषा यानी वाणी बदल जाती है। ऐसा ही कुछ खाने के साथ भी होता है, जो कि हर घर में हमें बदला हुआ मिलता है, एक अलग ही स्वाद और रंगत के साथ। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भारत में हर घर की एक सिग्नेचर डिश होती है, जिसे उस घर में ही तैयार किया जा सकता है। वह हमें सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर ऐसा कैसे हो जाता है, जबकि हममें से अधिकतर लोग उन्हीं मसालों और सामग्रियों का उपयोग करते हैं, जो दूसरे करते हैं। शायद यह खाना बनाने के अपने अनोखे अंदाज के कारण ही संभव हो पाता है।
■ सही चीजों का इस्तेमाल
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