हो सकता है कि आपको यह सुनना अजीब लगे क्योंकि आज के समय में बच्चों के हाथ से मोबाइल छुड़वा कर उन्हें बोर्ड गेम खेलने की आदत डालना बहुत टेढ़ी खीर है। हालांकि हम सब यह बात जानते हैं कि साथ मिल बैठ कर लूडो, कैरम, शतरंज, ताश, स्क्रैबल, मोनोपोली जैसे गेम्स खेलने से बच्चों को बहुत से फायदे मिलते हैं।
फरीदाबाद के मैरिंगो क्यूआरजी हॉस्पिटल की क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. जया सुकुल के अनुसार, “पिछले कुछ समय में बच्चों में एडीएचडी डिस्ऑर्डर के मामले बहुत बढ़े हैं। हाई स्क्रीन टाइम की वजह से बच्चों का दिमाग हाइपर होने लगा है। मेरे पास काउंसलिंग के लिए आनेवाले बच्चों में से 70-75 प्रतिशत में यह समस्या देखी जा रही है। यही नहीं, बच्चे अपनी उम्र के मुताबिक सामाजिक व्यवहार करना नहीं सीख पा रहे हैं। सोशल मैच्योरिटी में बच्चे दो-ढाई साल पीछे चल रहे हैं। लगभग सभी बच्चों में एकाग्रता की कमी, लोगों से मिलने-जुलने के नाम पर एंग्जाइटी होने लगती है। स्क्रीन टाइम के बढ़ने से बच्चों का दिमाग हाइपर एक्टिव हो गया है। बच्चों का आईक्यू लेवल भी घट रहा है। इन सारी समस्याओं का मुख्य कारण बच्चों की जरूरत से ज्यादा टेक्नोलॉजी पर निर्भरता है। जिस तरह से बच्चों में एडीएचडी यानी अटेंशन डेफिसिट हाइपर डिस्ऑर्डर के मामले बढ़ रहे हैं, वह वाकई चिंता का विषय है।"
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पिछले 2 सालों ने हमारी जिंदगी को 5-10 साल पीछे पटक दिया है। इसका प्रभाव बच्चों पर सबसे बाद में देखने को मिला है, लेकिन यह सिद्ध हो चुका है कि वे भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। हर बच्चे के हाथ में वाईफाई से कनेक्टेड मोबाइल कोरोना की ही देन है। इसमें वे पढ़ाई के अलावा भी और बहुत से काम कर रहे हैं। अगर कुछ नहीं कर रहे, तो वह है दोस्तों से मिलनाजुलना, बाहर खेलना, बातचीत करना। एक तरह से घर की रौनक कहलानेवाले बच्चे परिवार से भी कटते जा रहे हैं।
बच्चों की उठापटक, शोरशराबा जिन घरों में गूंजता था, वहां अब खामोशी पसरी रहती है। ऐसा नहीं है कि दो सालों में बच्चे अचानक से बहुत बड़े हो गए हैं, बस अपनी दुनिया में मस्त हो कर घर के कोनों में सिमटे स्क्रीन से चिपक कर रह गए हैं।
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