हरफनमौला, ममता की देवी, त्याग की प्रतिमूर्ति और न जाने कितने-कितने नामों और विशेषणों से नवाजा जाता है मां को। मां की महिमा का वर्णन करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। लोग भावुक हो कर मां पर लंबे-चौड़े आख्यान देते हैं, कविताएं - कहानियां और गीत रचते हैं। 'मेरे पास मां है...' जैसी डायलॉगबाजी से उसे एक उच्च शिखर पर खड़ा कर दिया जाता है। और अपेक्षा की जाती है कि वह सदा वहीं विराजमान रहे। इस ममता के आगे उसकी तमाम अन्य भूमिकाएं गौण हो जाती हैं या उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है।
नजर और नजरिया
समाज की नजर में अच्छी मां: मां के आंचल तले दो जहां की खुशियां मिल जाती हैं... एक स्त्री का जीवन मां बन कर ही पूर्ण होता है... बच्चे का जन्म होते ही एक मां भी जन्म लेती है... बच्चों की खातिर मां अपनी सारी खुशियां त्याग देती है... आदि-आदि।
बुरी मां: कैसी मां है, जरा से बच्चे को नहीं संभाल पाती... बच्चे के नंबर इतने कम! मां ने ठीक से पढ़ाया नहीं होगा... ये किटी पार्टी वाली मांएं, इन्हें क्या मालूम कि पैसे कैसे आते हैं... ये घर में रहने वाली मांएं, टीवी देखने के सिवा करती क्या हैं...।
बच्चे की नजर में अच्छी मां: मेरी मां के हाथ जैसा स्वाद और भला कहां! मम्मी प्लीज भूख लगी है, कुछ बना दो न! मॉम, मेरे मोजे नहीं मिल रहे, ढूंढ़ दो न! मां मेरा वॉर्डरोब अरेंज कर दो! मुझे देर हो रही है, प्लीज मेरा बैग और लंचबॉक्स थमा दो!
बुरी मां: कितनी बार कहा है मां, मुझे ये लौकी - तोरई नहीं पसंद, तुम हो कि वही बनाती हो। तुमसे कहा था कि मेरी यूनिफॉर्म प्रेस करवा कर रख देना, तुम कितनी भुलक्कड़ हो! तुमसे तो एक काम भी ठीक नहीं होता...!
...और अपनी नजर में मां: आज बेटे की पसंद की सब्जी उसके लंचबॉक्स में न रख सकी, पता नहीं उसने खाना खाया होगा कि नहीं...उसके बोर्ड एग्जाम्स हैं और मैं ऑफिस में मीटिंग में फंसी हूं... बच्चे को तेज बुखार था, मैंने छुट्टी नहीं ली, पता नहीं मेरा बच्चा किस हाल में होगा... बच्चे को हॉस्टल निकलना है। और मैं उसकी पसंद के लड्डू भी नहीं बना पा रही... आज फिर मैंने बच्चे की पीटीएम मिस कर दी...।
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