आसमान न मिला, पर सितारा बने
कंवलजीत वायुसेना में जाकर लड़ाकू विमान उड़ाना चाहते थे। उनका यह स्वप्न तो पूरा न हुआ, परंतु नियति ने इस सुदर्शन युवा को रुपहले पर्दे का सितारा बना दिया।
मेरा जन्म कानपुर में 19 सितंबर को एक सिख परिवार में हुआ। कानपुर मेरी ननिहाल है। मैं परिवार में सबसे छोटा हूं। मुझसे बड़े मेरे दो भाई हैं। पिता एलआईसी में अधिकारी थे तो उत्तर प्रदेश में अलग-अलग जगह उनके तबादले होते रहते थे। देहरादून, लखनऊ, झांसी, आगरा। लेकिन मैं सहारनपुर को अपना मानता हूं। मैं यहां किशोर हुआ। बहुत-से सपने देखे और कुछ पूरे भी हुए।
मेरे नाम का भी अजब क़िस्सा है। आगरा की बात है। पापा जी रॉयल एनफील्ड मोटर साइकिल पर मुझे बिठाकर स्कूल में दाखिले के लिए ले जा रहे थे तब पापा ने मम्मी से पूछा कि इसका क्या नाम रखें तो मम्मी ने कह दिया- वहीं स्कूल का रजिस्टर देख लेना और जो सरदार वाला नाम सही लगे लिखा देना । पापा मुझे लेकर चल दिए। अभी कुछ दूर ही पहुंचे थे कि उन्हें कुछ याद आया और वे वापस घर की तरफ़ मुड़ गए। मम्मी घर के बाहर ही कपड़े धो रही थीं। वहीं दूर से बोले- रानी, इसका कंवलजीत नाम कैसा रहेगा? मम्मी ने हंसते हुए कहा- ठीक रहेगा। इस तरह मैं कंवलजीत सिंह हो गया। बचपन में मुझे सब 'कुक्कू' बुलाते थे।
सहारनपुर के एसडी कॉलेज से मैंने इंटर किया। फिर बीए के लिए जैन कॉलेज में प्रवेश लिया। मसूरी के बोर्डिंग स्कूल सेंट जॉर्ज में भी पढ़ा। मसूरी के मेरे अधिकतर दोस्त आर्मी में गए । मैंने भी एनडीए के लिए परीक्षा दी और पास होता चला गया। मुझे वायुसेना में जाना था। पायलट बनना था सब टेस्ट पास करने के बाद आख़िर में मेडिकल हुआ। तब पता चला कि मुझे सीधे कान से कम सुनाई देता है। मुझे कहा गया कि आप डेस्क वर्क कर सकते हैं, फ्लाइंग नहीं। मुझे लगा कि क्या फ़ायदा! वैसे, कान कुछ समय बाद इलाज कराने पर ठीक हो गया था। लेकिन एक बात बताऊं (हंसते हुए) अब भी जब मुझे किसी की बात नहीं सुननी होती है तो मैं अपना यह कान ख़राब ही बताता हूं।
लुक-छिप कर हीरो बनने चला था.....
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