
मैंगौरैया हूं। हां, वही छोटी-सी फुदकती हुई चिड़िया, जो कभी तुम्हारे आंगन, बालकनी और खेतों में बेफिक्र उड़ती थी। याद है चुगती थी? पर अब मैं कहां हूं? क्या तुम्हें मेरी कमी महसूस होती है? तुम इंसानों से मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है। जब तुमने खेतों में हल चलाना शुरू किया था, मैं वहीं थी । मिट्टी के घरों की छतों पर मेरा बसेरा था और तुम्हारी कहानियों, लोकगीतों तथा मंदिरों के आंगन में मेरी मौजूदगी थी। मेरी चहचहाहट से सुबह की ताज़ी हवा में एक नई उमंग भर जाती थी। लेकिन अब तेज़ी से बदलते माहौल ने मुझे असहाय बना दिया है। शहरीकरण, प्रदूषण और आधुनिक तकनीकी विकास ने मेरे प्राकृतिक आवास को सिकोड़ दिया है।
पर्यावरण की सेहत का पैमाना हूं मैं...
मैं सिर्फ़ एक छोटी चिड़िया नहीं हूं, बल्कि मैं उस जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं जिसे तुम अक्सर अनदेखा कर देते हो। हर दिन मैं औसतन 500 छोटे कीड़ों का सेवन करती हूं जिससे खेतों में हानिकारक कीड़ों की संख्या नियंत्रण में रहती है। कई छोटे पौधों के परागण में मेरी भूमिका होती है, जिससे पौधों की वृद्धि और फलों का उत्पादन बेहतर होता है। मेरी मौजूदगी पर्यावरण की सेहत का पैमाना है। अगर मेरी संख्या घटने लगे तो समझ लो कि आसपास का पर्यावरण बिगड़ रहा है।
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।