संविधान की उद्देशिका में भारत को संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है. हमारे लोकतंत्र के मार्गदर्शक सिद्धांतों में से एक संविधान में प्रतिष्ठापित नागरिकों के मूलभूत अधिकार हैं जिनमें बोलने की आजादी भी है. मगर हाल के सालों में हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता और न्याय का यह प्राथमिक सिद्धांत तीखे दबाव झेल रहा है, क्योंकि भारत लगातार ज्यादा क्षणभंगुर या छुईमुई भावनाओं के गणराज्य में तब्दील होता जा रहा है. यही नहीं, ब्रिटिश औपनिवेशिक हुक्मरानों के बनाए एक दंड प्रावधान - भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) 1860 की धारा 295 (ए) – ने आहत भावनाओं की बहानेबाजी को निर्विरोध कानूनी स्वीकृति दे दी है.
अक्सर ईशनिंदा कानून का भारतीय संस्करण कहे जाने वाले इस कानून के अंधाधुंध इस्तेमाल ने आलोचकों को उदार लोकतंत्र में ऐसे कानून की वैधता पर सवालिया निशान लगाने को मजबूर कर दिया. इससे भी बदतर है राजनैतिक विरोधियों में ईशनिंदा को लेकर हाय-तौबा मचाने और अपने-अपने नैरेटिव के मुताबिक इस कानून की व्याख्या करने का प्रतिस्पर्धी जज्बा. इसका उपयोग, बल्कि दुरुपयोग, जुलाई की शुरुआत में उस वक्त हास्यास्पद ऊंचाई पर पहुंच गया जब उत्तर प्रदेश में एक फूड स्टॉल के मालिक को हिंदू देवी-देवताओं के छापे वाले अखबार में मांस लपेटने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया.
धारा 295 (ए) के मुताबिक अगर कोई शख्स दुर्भावनापूर्वक बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों या दृश्य निरूपणों के जरिए नागरिकों के किसी भी अन्य वर्ग की धार्मिक भावनाओं का अपमान करता या अपमान करने की कोशिश करता है तो वह तीन वर्ष के कारावास या जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है. हालांकि भारत में ईशनिंदा के खिलाफ आधिकारिक रूप से कोई कानून नहीं है, पर यह धारा एक कानून के सबसे करीब पड़ती है. ब्लैसफेमी या ईशनिंदा को “ईश्वर या पवित्र वस्तुओं के बारे में उन्हें अपवित्र करने के तरीके से बोलने" या "दैवीय वस्तुओं के बारे में बुरा बोलने के कृत्य या अपराध" के रूप में परिभाषित किया जाता है.
Denne historien er fra July 27, 2022-utgaven av India Today Hindi.
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