सुपौल जिले में कोसी नदी के किनारे बसा एक गांव है रतनपुर. सिंगल लेन वाली टूटी-फूटी ग्रामीण सड़क से गुजरते हुए जब आप नदी के किनारे पहुंचते हैं, तो वहां एक बड़ी-सी इमारत दिखती है. पीले रंग से बनी इस लंबीचौड़ी इमारत में न कोई सरकारी दफ्तर है, न ही किसी पुराने जमींदार का आशियाना. यह दरअसल बिहार सरकार द्वारा दस साल पहले बनाया गया बाढ़ आश्रय स्थल है. इस भवन में आपको सिर्फ और सिर्फ जलावन रखा मिलता है. यहां मौजूद ढेना गांव के बुजुर्ग रामशरण मेहता बताते हैं, “आसपास के आधा दर्जन से अधिक गांवों में हर साल कोसी नदी की बाढ़ आती है. मगर आज तक कोई बाढ़ पीड़ित इस आश्रय स्थल में नहीं रहा. क्योंकि जब बाढ़ आती है तो यह आश्रय स्थल खुद डूब जाता है." यह हालत इसलिए है कि इसके निर्माण के वक्त अधिकारियों ने यह नहीं देखा कि ने भवन जहां बनाया जा रहा है, वह गहरी जगह है. इसे किसी ऊंची जगह पर बनाना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हुआ और आज यह बाढ़ आश्रय स्थल किसी काम का नहीं है.
यहां से पांच-छह किमी दूर सातनपट्टी गांव में भी ऐसा ही एक बाढ़ आश्रय स्थल है. मगर वहां भी बाढ़ पीड़ित नहीं रहते. उसे कोसी तटबंध की सुरक्षा में जुटी कंस्ट्रक्शन कंपनी के कर्मचारियों ने अपना बसेरा बना लिया है. इसी तरह सुपौल जिले के सिसौनी गांव के बाढ़ आश्रय स्थल में सरकारी स्कूल चलता है और बड़हरा गांव के आश्रय स्थल के भवन से सुपौल नदी थाना संचालित होता है. मधुबनी जिले के कसियाम गांव में बने आश्रय स्थल में जलावन रखा जाता है. मधेपुरा जिले के चौसा में भी बाढ़ आश्रय स्थल निचले स्थान पर बना है, जो अक्सर बाढ़ के वक्त डूब जाता है. लोगों को वहां पहुंचने के लिए भी नाव का सहारा लेना पड़ता है.
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