अगर किसी रोज कॉलेज के सभी 1,400 छात्र एक साथ पहुंच जाएं तो उन्हें कहां बिठाएंगे? कॉलेज में तो बमुश्किल बनेअधबने सात-आठ कमरे ही हैं." यह सवाल जब मधेपुरा के बाबा सिंहेश्वर राधाकृष्ण महाविद्यालय के प्राचार्य सुरेंद्र नीरज से पूछा गया तो वे सकपका गए. उन्हें ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी. वे मान बैठे थे कि कभी कॉलेज में दाखिला लिए छात्रों का दस फीसद भी एक साथ नहीं आएगा. यहां छात्रों का कॉलेज से रिश्ता सिर्फ डिग्री पाने का है. वे एडमिशन कराने, फॉर्म भरने और एडमिट कार्ड लेने ही कॉलेज आते हैं.
यह कॉलेज मधेपुरा विश्वविद्यालय से बमुश्किल चार-पांच किमी दूर है. खेतों के बीच बना है और पगडंडियों से चलकर वहां पहुंचा जा सकता है. इस छोटे से परिसर वाले कॉलेज में स्नातक स्तर के 16 विभाग हैं, जिनमें 70 से अधिक शिक्षक नियुक्त हैं. इनके अलावा 50 से अधिक शिक्षकेतर कर्मी हैं. छात्र तो दूर, ये शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मी भी कभी एक साथ कॉलेज में आ जाएं तो उन्हें बिठाने की व्यवस्था परिसर में नहीं है. इसलिए वे भी कभी-कभार ही आते हैं.
दिलचस्प है कि यह कॉलेज 1983 से चल रहा है. इसे विवि 1990 से लगातार हर साल अस्थायी मान्यता देता रहा है और पिछले साल तो स्थायी मान्यता भी मिल गई. कॉलेज को कुल 1,408 छात्रों को पढ़ाने की स्वीकृति मिली है और हर सत्र में यहां से एक हजार से अधिक छात्र ग्रेजुएट होते हैं, बिना कक्षा में आए. इस कॉलेज के पूर्व प्राचार्य महीनों से गायब हैं, स्टाफ दबी जुबान में कहते हैं कि वे यूपी के प्रयागराज में फर्जी डिग्री बेचने में के किसी मामले में गिरफ्तार हो गए हैं!
खुद कॉलेज के सचिव ओमप्रकाश बाहेती मानते हैं कि उनके यहां कभी-कभार ही कक्षाएं लगती हैं. वे कहते हैं, “कक्षाएं तो विवि के बड़े-बड़े कॉलेजों में नहीं लग पातीं, हमारे कॉलेज को तो पिछले साल ही स्थायी मान्यता मिली है." बाहेती की बातों में वह तल्ख सच्चाई है जो आज बिहार की उच्च शिक्षा की हकीकत बयान करती है. राज्य के कुछ चुनिंदा कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पीजी विभागों को छोड़ दिया जाए तो पूरे बिहार में शायद ही कोई ऐसा कॉलेज है, जहां नियमित कक्षाएं लगती हों. यहां तक कि राजधानी पटना के सबसे प्रतिष्ठित साइंस कॉलेज में भी कभी हाजिरी 50-60 फीसद तक नहीं पहुंच पाती.
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