पिछले कुछ दशकों में कर्नाटक के लगभग हर विधानसभा चुनाव में जनता दल (सेक्युलर) [जद (एस)] के किंगमेकर की भूमिका में होने की क्षमता पर सवाल उठते रहे हैं. वर्ष 2004 में और फिर 2018 में जद (एस) दो बड़े दलों, अर्थात् कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, के बीच फंसा था जिसके परिणामस्वरूप अल्पकालिक गठबंधन सरकारें बनीं.
इन दो दशकों में चुनावों के बीच नेताओं के लगातार पलायन के कारण पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में वोक्कालिगा जाति समूह के समर्थन वाली इस पार्टी की पहुंच लगातार कमजोर हुई है. फिर भी, कर्नाटक में अप्रैल-मई में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह महत्वपूर्ण सवाल आज भी पहले जितना ही बड़ा है.
राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस दोनों ही त्रिशंकु विधानसभा की संभावना से चिंतित हैं और किसी भी तरह इस स्थिति से बचना चाहती हैं. पिछले कुछ दिनों में ये चिंताएं स्पष्ट रूप से सामने आई हैं और दोनों दलों के शीर्ष नेताओं ने राज्य का दौरा करते हुए जद (एस) पर निशाना साधा है.
बीती 28 जनवरी को राज्य के उत्तरी जिले बेलगावी में भाजपा की विजय संकल्प रैली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने संबोधन में दोनों पार्टियों को 'परिवारवादी' बताते हुए कहा कि जद (एस) को मिलने वाला हर वोट अंततः कांग्रेस को फायदा पहुंचाएगा. क्षेत्रीय दल जद (एस) के खिलाफ ऐसा ही हमला शाह ने कुछ हफ्ते पहले दक्षिणी कर्नाटक के मंड्या में किया था. मंड्या को जद (एस) का गढ़ माना जाता है.
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