उस रात गाड़ी संख्या 12533 पुष्पक एक्सप्रेस के कोच 'बी 5' में कुछ ज्यादा ही शोरगुल था. बहुत मुमकिन था कि दिक्कत अचानक बंद हुए एसी, खराब खाने या ट्रेन के किसी हॉल्ट पर जरूरत से ज्यादा रुकने की होती. लेकिन ये इंटरनेट की पीठ पर सवार होकर आई एक नई और गहरी परेशानी थी. रात डेढ़ बजे के करीब पूरा कोच एक 20 महीने के लगातार रोते हुए बच्चे को चुप कराने की कोशिश में था. ट्रेन उरई से आगे बढ़ चली थी और मोबाइल इंटरनेट काम नहीं कर रहा था. बच्चे को रोज की तरह मोबाइल स्क्रीन पर अपने पसंदीदा कार्टून वीडियो देखने थे, लेकिन यूट्यूब बिना इंटरनेट के ध्वस्त पड़ा था. लखनऊ से मुंबई जा रही ट्रेन के उस कोच में दर्जनों उनींदे यात्री बेहतर इंटरनेट सिग्नल का इंतजार कर रहे थे.
लखनऊ के 39 वर्षीय रविकांत उस रात को किसी हादसे की तरह याद करते हैं. उनकी पत्नी 35 वर्षीया सुमन कहती हैं, "हमें उस रात एहसास हुआ कि हमारा बच्चा जाने-अनजाने इतनी खतरनाक लत का शिकार हो चुका है. आखिरकार गश्त पर निकले रेलवे सुरक्षा बल के एक अधिकारी ने हमारी मदद की. उन्होंने अपने बच्चे के लिए मोबाइल में कुछ कार्टून वीडियो डाउनलोड करके रखे हुए थे. उनसे वीडियो लेकर दिखाने के बाद ही हमारा बच्चा शांत हुआ".
सुमन जिस 'लत' की बात करती हैं, उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) समेत दुनिया भर की स्वास्थ्य संस्थाएं और डॉक्टर क्लिनिकल तौर पर 'स्क्रीन टाइम' कहते हैं. यानी टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप या टैब के सामने बिताया गया समय. बच्चों पर इसके खतरनाक असर को लेकर अमेरिकन एकैडमी ऑफ पीडियेट्रिक्स (एएपी) से लेकर इंडियन एकैडमी ऑफ पीडियेट्रिक्स तक (आइएपी) चेतावनी और गाइडलाइन जारी करते रहे हैं. आइएपी के सदस्य डॉक्टर मोहम्मद तारिक इंडिया टुडे से हुई बातचीत में बताते हैं, "इसके नतीजे बेहद खतरनाक हैं. जिस उम्र में बच्चों का दिमाग सीखने के लिए सबसे ज्यादा तैयार और संवेदनशील होता है वह उम्र स्क्रीन के चटख रंगों और मोबाइल के रेडिएशन में जा रही है."
इसमें परेशानी क्या है?
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