इन सभी सम्मलनों में ये जातियां जोरशोर से आरक्षण देने या उसमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग कर रही हैं. दिलचस्प बात है कि अगर इन मांगों को मान लिया जाए तो राज्य में आरक्षण की सीमा 100 फीसद को भी पार कर जाएगी. यही नहीं हर जाति की महापंचायत अपनी जाति का मुख्यमंत्री चाहती है. विधानसभा सीटों पर सभी जातियों को अपना सियासी प्रतिनिधित्व चाहिए. ये मांगें कम से कम पांच मुख्यमंत्री और 250 से 300 विधानसभा सीटों से पूरी होंगी. सबके अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन तथ्य है राजस्थान विधानसभा की कुल 200 सीटें और हर राज्य की तरह एक मुख्यमंत्री. दूसरा दिलचस्प तथ्य यह भी है कि राजस्थान आरक्षण देने में कोई पिछड़ा राज्य नहीं है. भारत में राज्यों के आरक्षण प्रतिशत को देखें तो 64 फीसद आरक्षण के साथ राजस्थान फेहरिस्त में तीसरे नंबर पर है. इस लिस्ट में पहले स्थान पर मध्य प्रदेश (73 फीसद आरक्षण) और दूसरे स्थान पर तमिलनाडु (69 फीसद आरक्षण) हैं. राजस्थान में अन्य पिछड़ा वर्ग को 21, अनुसूचित जाति को 16, अनुसूचित जनजाति को 12 फीसद और गुर्जर सहित पांच जातियों को मोस्ट बैकवर्ड क्लास (एमबीसी) श्रेणी में 5 फीसद आरक्षण मिलता है. इसके साथ ही आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान है.
आरक्षण के इन आंकड़ों में अपनी-अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए चुनाव से पहले हो रहे ये जातीय सम्मेलन राजनीतिक दलों के लिए गले की हड्डी बनते भी दिख रहे हैं. राजनीतिके जानकार कहते हैं कि अभी कांग्रेस और भाजपा के प्रतिनिधि इन जातीय सम्मेलनों में बड़े-बड़े वादे और दावे कर रहे हैं, लेकिन चुनाव के बाद उन्हें जनता के सवालों और फिर गुस्से का सामना करना पड़ेगा.
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