किताब के पहले पन्ने पर कुछ लिखा था पर उर्दू लिपि में. अरे! क्या उन्हें पता न था कि मुंबई में ठेठ बांद्रा की पैदाइश, मुसलमान फैमिली की, कॉन्वेंट में पढ़ी और हिंदुस्तानी जबान में फिल्मों के लिए गाने लिखती आ रही बेचारी कौसर को उर्दू पढ़ना नहीं आता ! अब ? वे चाहतीं तो किसी से पढ़वा लेतीं पर फिर उनकी क्रिएटिव सरकशी और मौन बगावत का क्या होता. तय किया कि इसे वे ही पढ़ेंगी. उन्हें आगे चलकर सरकशी का परचम फहरा दो लिखना था (फिल्म 83), जिसके लिए 2022 में फिल्मफेयर अवार्ड के इतिहास में पहली बार किसी महिला गीतकार को तमगा मिला (इस गाने को यूट्यूब पर अब तक 3.6 करोड़ से ज्यादा बार देखा जा चुका है). कौसर ने किताब को छुपाए रखा और लॉकडाउन के दौरान ही लखनऊ के युवा शायर अभिषेक शुक्ल से उर्दू सीखी. फिर पहला पन्ना खोला. लिखा था: प्यारी कौसर, कोसा कोसा लगता है/तेरा भरोसा लगता है/रात ने अपनी थाली में/चांद परोसा लगता है.
लेकिन कौसर को चेहरे, गली-कूचों की जबान, अनकहे इमोशंस पढ़ना और उन्हें शब्दों में पिरोना आता था. हवा को सांस, पानी को घूंट और राख को भभूत में बदलना आता था. तभी तो खुद गुलजार कहते हैं, "इसके पहले भी कुछेक महिला गीतकार हुई हैं लेकिन कौसर की ये खूबी है कि वे आज की मॉडर्न पोएट लगती तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि उनकी पोएट्री में परवीन शाकिर जैसा लुत्फ है. उनके जैसा लिखती हैं वे. उन पर उस घराने का भी असर है जिसमें वे पैदा हुई. और एक खास बात: उनमें उर्दू नज्म का फ्लेवर है.
Denne historien er fra June 28, 2023-utgaven av India Today Hindi.
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