अगस्त की 2 तारीख को आखिरकार राज्यसभा में 1980 के वन (संरक्षण) कानून (एफसीए) में दूरगामी असर वाले संशोधन को मंजूरी मिल गई. यह विधेयक एक सप्ताह पहले ही लोकसभा में बिना किसी बहस के पारित हो गया था. पर्यावरणविद् इसका जोरदार विरोध करते आ रहे हैं. उनका दावा है कि ये बदलाव पिछले दशक के वन क्षेत्र बढ़ाने के फायदों को बर्बाद कर देंगे. जैसे ही कोई इलाका या जमीन 1927 के वन कानून या किसी अन्य कानून के तहत वन क्षेत्र घोषित किया जाता है, एफसीए कानून उस पर लागू हो जाता है, अब उसे 'अनारक्षित' या सरकारी या निजी क्षेत्र के किसी ‘गैर-जंगलात मकसद' के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा. हालांकि इसके लिए केंद्र की मंजूरी से पहले समीक्षा से गुजरना होगा.
इस साल मार्च में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने संशोधन विधेयक का मसौदा संसद में पेश किया था, जिसके बाद उसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजा गया था. जेपीसी ने 20 जुलाई को रिपोर्ट पेश की. लेकिन अजीब बात है कि किसी बदलाव की सिफारिश नहीं की गई, जबकि उसे 1,300 से अधिक प्रतिक्रियाएं मिली थीं. इनमें से कई पर्यावरणविदों, राज्य सरकारों और अन्य संबंधित पक्षों की जबरदस्त आपत्तियां थीं. इसके अलावा जेपीसी के कई सदस्यों के असहमति वाले नोट भी थे.
केंद्र सरकार ने संशोधन की जरूरत के समर्थन में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने से लेकर राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक और सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं को तेजी से से पूरा करने जैसे कई वजहें बताईं. लेकिन कई संबंधित पक्षों को डर है कि महत्वपूर्ण मुद्दों को कार्यपालिका के विवेक पर छोड़ दिए जाने से कानून की गलत व्याख्या और दुरुपयोग किया जा सकता है. इनमें 400 पर्यावरण विज्ञानी, छात्र और शोधकर्ता शामिल हैं, जिन्होंने हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र लिखा था, लेकिन लगता है कि उसे तवज्जो के काबिल नहीं माना गया. कई राज्यों की आपत्तियों को भी दरकिनार कर दिया गया, जिन्होंने प्रावधानों में बदलाव की मांग की थी.
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