कई यह 2024 के चुनावों की बाजी है. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कामयाब जी20 शिखर सम्मेलन की चमक से जगमग थे, बेशक कनाडा का अफसाना हल्की-फुल्की विसंगति था, और फिर संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण विधेयक की गुगली फेंकी, जिससे उनकी निजी लोकप्रियता छलांग लेने लगी, तभी बिहार के मुख्यमंत्री तथा जनता दल (यूनाइटेड) या जद (यू) के दिग्गज नीतीश कुमार ने ऐसा छक्का जड़ दिया, जिससे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) फिलहाल भौचक दिख रही है. हरिजन उत्थान के झंडाबरदार महात्मा गांधी की जयंती 2 अक्तूबर को नीतीश ने बिहार जाति आधारित गणना के नतीजे सार्वजनिक कर दिए. अलबत्ता इसे सामाजिक न्याय की जीत बताया गया, लेकिन इस कवायद की राजनीति किसी से छुपी नहीं है.
बिहार के जाति सर्वेक्षण ने वह साबित कर दिया, जिसकी शंका कुछ समय से हर किसी के मन में थी. यह कि ओबीसी या अन्य पिछड़े वर्ग की संख्या 1931 की जनगणना के अनुमान 52 फीसद से ज्यादा है (जिसके आधार पर 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट आई थी). इससे इस दलील को बल मिलता है कि आरक्षण में उनकी हिस्सेदारी उससे काफी कम है, जो उनका हक होना चाहिए. बिहार की जाति गणना से खुलासा हुआ कि ओबीसी और ईबीसी (अति पिछड़े वर्ग) राज्य की आबादी में 63.1 फीसद हैं. एससी और एसटी मिलाकर 21.3 फीसद हैं, जबकि अगड़ी जातियां बाकी 15.5 फीसद में हैं. देश भर में एससी और एसटी के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 22.5 फीसद आरक्षण है, जबकि ओबीसी के लिए 27 फीसद. बिहार की जाति जनगणना से शर्तिया तौर पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने और मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में फेरबदल की मांग को ताकत मिलेगी.
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