पहलगाम के ब्रिधाजी गांव के अन्य लोगों की तरह 54 वर्षीय मोहम्मद रजब ने भी 2005 में मक्के की खेती छोड़कर अपनी 4.5 कनाल भूमि पर सेब के पेड़ लगा दिए. सेब की खेती ने 150 घरों वाले इस गांव में उनके कई पड़ोसियों की किस्मत ही बदल दी थी. इनमें कई लोगों ने सन् 2000 के बाद ही अपने मक्के के खेतों को सेब के बगीचों में तब्दील कर दिया था. रजब सेब के पेड़ों की देखभाल के लिए सुबह जल्दी ही अपने बगीचे में पहुंच जाते. नियमित तौर पर कीटनाशक और पोषक तत्वों का छिड़काव करते और पेड़ों के बीच 10 से 20 फुट दूरी रखने जैसे वैज्ञानिक तरीके भी अपनाते और जब सेब फलने लगता तब उन्हें जंगली भालुओं से बचाने के लिए रात भर बगीचे में रुककर पहरेदारी भी करते. रजब कहते हैं, "मैंने बगीचे को एकदम बच्चे की तरह पाला-पोसा है." इस उम्मीद के साथ कि गुणवत्तापूर्ण सेबों की उपज उन्हें अच्छा लाभ दिलाएगी. हालांकि, पिछले तीन साल में बार-बार हुए आर्थिक नुक्सान ने रजब को सेब की खेती करने पर पुनर्विचार के लिए बाध्य कर दिया है.
रजब बताते हैं, "मौसम में अचानक होने वाला बदलाव-जैसे सुबह-शाम बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि हो जाना-पेड़ों के फलने के समय काफी नुक्सानदेह साबित होता है. इसके अलावा बीमारियों के प्रकोप ने भी यहां खेती को अस्थिर कर दिया है." 2020 तक रजब अपने बगीचे में 450 पेटी 'डिलीशियस' किस्म के सेब उगा लेते थे, जिससे उन्हें सालाना लगभग 2.5 लाख रुपए की कमाई होती थी. लेकिन अक्तूबर 2021 के शुरू में हुई बर्फबारी ने पूरी घाटी में सेब के बगीचों को तबाह कर दिया. रजब के बगीचे को पहुंचा नुक्सान अब भी साफ देखा जा सकता है, जहां करीब 70 पेड़ नट और बोल्ट के सहारे खड़े हैं. अब, बुरी तरह हताश हो चुके पांच बच्चों के पिता रजब कहते हैं, “तब से मेरे बगीचे में 35 फीसद भी फल नहीं आते. हम सेब के इन 100 पेड़ों को काटकर जलावन लकड़ी के रूप में इस्तेमाल करेंगे. आर्थिक नुक्सान को देखते हुए मेरा परिवार नहीं चाहता कि मैं और सेब उगाऊं. दूसरों की तरह मैं भी अगले साल अखरोट के पेड़ लगाने की सोच रहा हूं. उन्हें सेब की तरह कीटनाशक या इतनी देखभाल की जरूरत नहीं होती और न ही मौसम का उतार-चढ़ाव ही ज्यादा असर डालता है."
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