खून-खराबे की वजह से मणिपुर साफ-साफ दो अलग इलाकों में बंट गया. मैतेई बहुल इंफाल घाटी और कुकी कब्जे वाले पहाड़ी जिलों के बीच नो मैन्स लैंड, जहां केंद्रीय बलों का पहरा रहा है. ऐसे हालात में जिरीबाम बेहद
नाजुक शरणस्थली की तरह खड़ा था, जहां मैतेई, कुकी-जो, नगा और अन्य समूहों की मिलीजुली आबादी है. लेकिन जून में अचानक एक कुकी युवा का शव मिलने पर कुकी समूहों ने हत्या के लिए मैतेई हथियारबंद गुटों को दोषी ठहराया. कुछ दिनों बाद एक मैतेई शख्स का शव मिला, जिसे कथित तौर पर कुकी समूह ने मार दिया. तब से जिरीबाम में भड़की हिंसा में लगभग दो दर्जन लोगों की जान जा चुकी है.
इस खून-खराबे की जड़ में जमीन और संसाधनों पर नियंत्रण की लड़ाई है. पिछले सालहिंसा उस वक्त भड़की जब मणिपुर अखिल आदिवासी छात्र संघ ने मणिपुर हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ एकजुटता मार्च का आयोजन किया था. हाइकोर्ट ने 7 अपने फैसले में मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की सिफारिश की थी. दरअसल, हिंसक टकराव मणिपुर में सामाजिक खाई के चौड़ी होने का नतीजा है. मैतेई बहुल इंफाल घाटी में राज्य की 53 फीसद आबादी है. यहां राज्य के कुल क्षेत्रफल की सिर्फ 11 फीसद जमीन है. लेकिन यही के इलाका राजनैतिक ताकत रखता है, क्योंकि राज्य की कुल 60 विधानसभा सीटों में से 40 इसी इलाके में हैं. पहाड़ियों में रहने वाले आदिवासी समुदायों नगा (24 फीसद) और कुकी/जो (16 फीसद) हाशिए पर धकेले जाने का आरोप लगाते हैं. जमीन संबंधी कानून मुताबिक, घाटी में रहने वाले गैर-आदिवासी लोग पहाड़ों में जमीन नहीं खरीद सकते. इसी प्रतिबंध को मैतेई लोग एसटी का दर्जा हासिल करके टालना चाहते हैं. पिछले एक साल में हिंसक टकरावों में करीब 200 लोगों की जान जा चुकी है और 60,000 से ज्यादा लोग बेघर हो गए हैं.
अपने-अपने इलाकों में सीमित दोनों समुदायों के बीच अब जिरीबाम जैसे साझा क्षेत्रों पर नियंत्रण की होड़ है. इसी जिले से गुजरने वाला एक राष्ट्रीय राजमार्ग मणिपुर को असम और बाकी देश से जोड़ता है और एक तरह से वह जीवन रेखा है. कुछ की यह दलील है कि जिरीबाम मिजोरम से सटा है, जहां की अधिसंख्य मिजो आबादी कुकी/जो आदिवासी समूह का ही हिस्सा है, इसलिए यह जिला कुकी लोगों की अलग प्रशासनिक इकाई की मांग के लिए अहम है.
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